संपादकीय... मुद्दा भ्रष्टाचार का


पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक इन दिनों खासे चर्चा में हैं। उनके द्वारा करण थापर को एक लम्बा इंटरव्यू देकर राजनीति के समंदर में कुछ नयी हलचल पैदा कर दी गई हैं। यह बात और है कि उनके दो बयान खास थे और उन दोनों को ही अन्य मुद्दों से दबाने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि ये दोनों ही मुद्दे आज की तारीख में बहुत महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं। मलिक जब कश्मीर और गोवा के राज्यपाल थे, तब भी उनके वक्तव्यों में मीडिया का ध्यान खींचने लायक काफी मसाला हुआ करता था। और राज्यपाल रहते हुए ही उन्होंने किसान आंदोलन का समर्थन करने का साहस भी दिखाया था।
मलिक के साक्षात्कार में दो अहम मुद्दे निकल कर सामने आए। एक पुलवामा का सच और दूसरा भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार की बात करें तो इस समय राजनीति के इर्द-गिर्द सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बयानों की होड़ चल रही है। पहली नजर में लगता है कि भ्रष्टाचार पर होने वाली यह तल्ख बहस अगर दो-तीन महीने और चल गई तो 2024 के चुनाव का फैसला इसी पर केंद्रित हो जाएगा। कहना न होगा कि भ्रष्टाचार पर पहले भी चुनाव होते रहे हैं, पर इस बार खास बात यह है कि पहली बार सत्तापक्ष द्वारा सारे के सारे विपक्ष पर भ्रष्टाचारी होने का इलजाम लगाया जा रहा है। वरना 1989 में विपक्ष ने ही सरकार पर बोफोर्स सौदे में कमीशन खाने का आरोप लगाया था।
2014 के चुनाव पर तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की छाप ही लगी हुई थी। सत्तापक्ष के आक्रमण के जवाब में इस बार विपक्ष के पास अदाणी का मुद्दा है, जिसका सहारा लेकर वह सरकार और प्रधानमंत्री को घेरने में लगा है। विपक्ष को पूरी उम्मीद है कि अदाणी और प्रधानमंत्री के संबंधों का सवाल उठा कर वह बोफोर्स जैसा प्रभाव पैदा कर सकता है। दूसरी तरफ, भ्रष्टाचार पर चल रहे आरोप-प्रत्यारोप का सबसे संगीन पहलू यह है कि विपक्षी नेताओं के सिर पर केंद्रीय जांच एजेंसियों की तलवार लटक रही है। वे कभी भी गिरफ्तार किए जा सकते हैं। पूछताछ के लिए बुलाया जाना तो मामूली बात हो गई है।
माना जा रहा है कि घटनाक्रम इसी तरह चलता रहा तो 2024 तक आते-आते ज्यादातर विपक्षी नेता किसी न किसी घोटाले या विवाद में फंसे नजर आएंगे। या तो वे जेल जाने की तैयारी कर रहे होंगे या जमानत पर होंगे। और शायद सत्तापक्ष का प्रयास भी यही है। क्योंकि वह सत्ता में है। उसके पास केवल एजेंसियां ही नहीं हैं, उसके पास बहुत विशाल प्रचार तंत्र भी है। मीडिया के साथ ही सोशल मीडिया भी, और बहुत सारे अन्य तंत्र भी। सो भारी तो वह अभी भी पड़ ही रहा है।
ऐसे उठापटक वाले राजनीतिक माहौल में सतपाल मलिक के इस कथन के खास मायने हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भ्रष्टाचार से कोई खास नफरत नहीं है। इसके दो मायने निकाले जा रहे हैं। एक, उन्हें भ्रष्टाचार से घृणा तो है पर उस अरुचि की प्रकृति सामान्य किस्म की है। यानी उनकी नीति जीरो टॉलरेंस की नहीं है। वैसे भी भ्रष्टाचार हमारे सिस्टम में रच-बस सा गया है, सो कोई भी उससे बच नहीं सकता है। और जब हम दूसरों को भ्रष्टाचार में उलझाने की बात करें तो हमारे गिरेबान के अंदर भी झांका जा सकता है, यह हमें नहीं भूलना चाहिए।
सवाल फिलहाल अगले साल होने वाले आम चुनाव का है। और यह भी कि, वह कौन-सा मतदाता है, जो भ्रष्टाचार संबंधी बहस से प्रभावित हो सकता है? देखा जाए तो ऐसे लोग भी हैं, जो किसी पार्टी के प्रति निष्ठा नहीं रखते। इन मतदाताओं की संख्या कम लेकिन कई बार महत्वपूर्ण और निर्णायक हो जाती है। चुनाव यदि कम ध्रुवीकृत होगा, बीच की कगार पर बैठे मतदाता उतने ही ज्यादा होंगे। परंतु, सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि आखिर वो किसे भ्रष्ट माने? जिन्हें देश की जांच एजेंसियां जेल भेज रही हैं या उन्हें भ्रष्ट मान रही हैं? या उन्हें जो वास्तव में भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं, चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में? एक चर्चा यह भी है कि सत्ता में रहकर भ्रष्टाचार सभी करते हैं, उजागर नहीं हो पाता।
कुल मिलाकर दो तरह के भ्रष्टाचार हैं। एक तो जांच एजेंसियों द्वारा प्रमाणित, जो कोर्ट की दहलीज पर हैं। दूसरे, जो सत्ता में बैठकर या उससे जुडक़र किए जा रहे हैं। भ्रष्टाचार तो दोनों ही हैं। दोनों ही गलत। अब यदि सत्ता में बैठकर खुद भ्रष्टाचार किया जाए और केवल विपक्षियों पर निशाना साधा जाए, तो इसे कितने लोग समर्थन देते हैं, इसका जवाब चुनाव में मिल सकता है। वैसे, हमारे भोले भाले मतदाता, जरूरी मुद्दों से बड़ी आसानी से भटका दिए जाते हैं। धर्म, जाति और संप्रदाय के नाम पर। सो भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे सबसे जरूरी मुद्दे आम तौर पर पिछड़ जाते हैं। अभी चर्चाओं में हैं, अदालतों में हैं और सोशल मीडिया पर भी। देखते हैं चुनाव आने तक क्या होता है...?
- संजय सक्सेना

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