Editorial: एक देश-एक चुनाव
करना चाहें तो कुछ भी हो सकता है…इसी सिद्धांत पर शायद केंद्र की एनडीए सरकार एक देश-एक चुनाव को लेकर मैदान में उतरती दिखाई दे रही है। इसे लेकर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कमेटी की सिफारिशों को मानते हुए केंद्र सरकार ने पहला कदम तो बढ़ा दिया है, लेकिन इसे लागू करना आसान नहीं है। असल चुनौती अब आने वाली है। क्या राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार करते हुए इस मसले पर विपक्ष सत्तापक्ष के साथ हो पाएगा? यह सवाल सबसे मौजूं है। साथ ही इस योजना के व्यावहारिक पक्षों को भी न केवल देखना होगा, अपितु समझना भी होगा। ये दो सवाल या मुद्दे ही तय करेंगे कि सरकार अपने इस विजन रूपी मिशन को अमली जामा पहनाने में सफल हो पाती है या नहीं?
एनडीए सरकार शीत सत्र के दौरान वन नेशन, वन इलेक्शन से जुड़ा प्रस्ताव संसद में पेश करने की सोच रही है। लेकिन इसके लिए आवश्यक संख्याबल उसके पास नहीं है। अभी तो यह भी तय नहीं है कि सत्ता में सहभागी सारे दल इस मुद्दे पर साथ देंगे। सीधी सी बात है कि इसके लिए सरकार को विपक्षी खेमे के सहयोग की जरूरत पड़ेगी ही। इस लोकसभा चुनाव के बाद से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच जिस तरह का रिश्ता रहा है, उसे देखते हुए तो यह उम्मीद व्यावहारिक नहीं लगती कि विपक्ष इस मामले में किसी तरह का सहयोग करेगा।
देखा जाए तो सरकार ने पिछले साढ़े दस सालों के दौरान विपक्ष के साथ ऐसा कोई व्यवहार किया भी नहीं है कि विपक्ष उसका साथ दे। वैसे इस मामले पर विचार के लिए बनी उच्च स्तरीय कमेटी ने 62 राजनीतिक दलों से संपर्क किया था। इनमें से 47 ने जवाब दिया। कहा जा रहा है कि 32 दल एक देश एक चुनाव के पक्ष में थे और 15 पार्टियों ने इसका सीधे-सीधे विरोध किया। पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने के पीछे सबसे बड़ा तर्क है कि इससे खर्च में कटौती होगी।
और यह तर्क भी दमदार कहा जा सकता है कि अभी लगभग हर वक्त ही देश के किसी न किसी हिस्से में चुनावी माहौल चल रहा होता है, जिसके चलते विकास कार्य प्रभावित होते हैं। ्रयह बात भी सही है कि एक साथ चुनाव उन छोटे दलों के लिए सुविधाजनक होंगे, जिनके पास बार-बार प्रचार में उतरने लायक पैसे नहीं होते। बार-बार चुनावों के खर्च से बचने का तर्क अपनी जगह ठीक है, लेकिन यही तर्क इस प्रस्ताव के खिलाफ भी काम करता है। सवाल यह है कि पूरे देश में इलेक्शन कराने के लिए जितने बड़े पैमाने पर संसाधन चाहिए, क्या उन्हें आसानी से जुटाया जा सकेगा? यदि संसाधन ही होते तो लोकसभा चुनाव सात चरणों में क्यों कराने पड़ते? राज्यों के विधानसभा चुनाव भी अलग-अलग चरणों में कराने की आवश्यकता क्यों पड़ती? सरकार में बैठे लोग इसका जवाब देने तैयार नहीं।
आजादी के बाद देश में पहले चार चुनाव इसी तर्ज पर हुए थे। उसके बाद भी काफी समय तक यह स्थिति बनी रही। लेकिन उस समय परिस्थितियां कुछ और ही थीं। केंद्र और राज्यों में एक ही पार्टी की सरकार थी। अब ऐसा नहीं दिखता। क्षेत्रीय दलों के ताकतवर होने से हमाने पॉलिटिकल सिस्टम में अच्छी खासी विविधता आई है। साथ ही, देश के हर राज्य की अपनी आवश्यकताएं हैं और अपने मुद्दे। सबकी परिस्थितियों में भी काफी अंतर है। हर चुनाव इन खास मुद्दों के इर्द-गिर्द लड़ा जाता है।
हम जब एक देश एक चुनाव लागू करने की बात कर रहे हैं, उसी समय जम्मू कश्मीर में चुनाव हो रहे हैं। एक ही राज्य के चुनाव हम एक चरण में नहीं करवा पा रहे, तो पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कैसे करा पाएंगे? यह सवाल तो सबसे अहम है ही। इसके लिए बस ये कहा जा रहा है कि हो जाएगा। अरे हो कैसे जाएगा? लोकसभा चुनाव ही एक चरण में करवा कर देख लिया जाता, तो आगामी चुनाव के लिए हमें समझ में आ जाता कि क्या ये संभव है? लेकिन लोकसभा चुनाव ही सात चरणों में कराए गए।
फिर, अभी हरियाणा चुनाव होंगे। इसके बाद दिल्ली में चुनाव होने हैं। झारखंड और महाराष्ट्र में चुनाव होने हैं। क्या आगामी लोकसभा चुनाव तक सबके कार्यकाल खत्म किए जा सकेंगे? क्या दो-तीन महीने से लेकर छह महीने तक तो सरकारों का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। राष्ट्रपति शासन भी लागू किया जा सकता है, लेकिन यह कतई लोकतांत्रिक नहीं होगा। क्या विपक्ष भरोसा कर पाएगा विपक्षी पार्टियों की सरकारों का कार्यकाल बढ़ाया जाएग और सत्तापक्ष की सरकारों को समय के पहले भंग कराया जाएगा? यहां सवाल राजनीतिक नीयत और जो हाल के अनुभव हुए हैं, उनका भी है।
और संसद से लेकर मैदान तक में सत्तापक्ष से विपक्ष के संबंध प्रतिद्वंद्वी नहीं, दुश्मन जैसे होते दिखाई दिए हैं। आरोप तो है ही कि विपक्षी नेताओं को ईडी और सीबीआई के माध्यम से पर जेल भिजवाया गया। मुख्यमंत्रियों तक को जेल भिजवा दिया गया। सरकारें गिराने की साजिश के आरोप भी सत्तापक्ष पर लगते रहे हैं, इनमें मध्यप्रदेश की पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को गिराना भी शामिल है। ऐसे में विपक्ष से सहयोग या समर्थन की उम्मीद करना बेमानी ही लगता है। यह भी हो सकता है कि सरकार एक-देश एक चुनाव के माध्यम से कई मुद्दों को खत्म करना चाहती हो?
कुल मिलाकर, जो परिस्थितियां इस समय देश में बनी हुई हैं, उनमें तो लगता नहीं कि एक देश एक चुनाव का मिशन फिलहाल पूरा हो पाएगा। सरकार क्या रणनीति अपनाती है, वह देखना होगा। क्योंकि हमेशा चौंकाने वाले निर्णय लेने के लिए यह सरकार प्रसिद्ध हो गई है। यह बात और है कि पिछले कई निर्णय उसे वापस भी लेने पड़े हैं।
– संजय सक्सेना