एक ओर संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम यानि यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान बहुत नीचे आया है, दूसरी ओर अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी फिच ने चालू वित्त वर्ष 202-23 में देश की आर्थिक वृद्धि दर का पूर्वानुमान घटा दिया है। हम कितने ही सुधार के दावे करें, परंतु आज फिच ने दावा किया कि चालू वित्त वर्ष की जीडीपी वृद्धि दर सात प्रतिशत रहेगी। इस रेटिंग एजेंसी ने जून में जारी पूर्वानुमान में जीडीपी दर 7.8 प्रतिशत रहने की उम्मीद जताई थी। अब उसका कहना है कि चालू वर्ष में यह 7 प्रतिशत रहेगी। यानी इसमें 0.8 प्रतिशत की कमी की गई है। इतना ही नहीं फिच ने अगले वित्त वर्ष के लिए भी अपना जीडीपी पूर्वानुमान घटाकर 6.7 प्रतिशत कर दिया है। यानि इसमें और कमी होने का अनुमान है।
बात मानव विकास की करें तो संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा प्रकाशित मानव विकास सूचकांक (एचडीआई)-2021 में 189 देशों की सूची में भारत 132वें पायदान पर पाया गया है। इसमें कहा गया है कि कोविड-19 के कारण 32 वर्षों में पहली बार दुनिया भर में मानव विकास ठहर-सा गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, जीवन प्रत्याशा, स्वास्थ्य व शिक्षा की बड़ी चुनौतियों के बीच भारत ने कोरोना संकट का बेहतर ढंग से सामना किया। रिपोर्ट से यह भी मालूम होता है कि मानव विकास सूचकांक-2021 में जहां बांग्लादेश व चीन जैसे देश भारत से बेहतर स्थिति में हैं, वहीं मलयेशिया और थाईलैंड जैसे एशियाई पड़ोसी देश भी अत्यधिक उच्च श्रेणी में दिखाई दे रहे हैं। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का तमगा हासिल करने वाले भारत में मानव विकास सूचकांक में कमी आना विचारणीय प्रश्न है।
हम भले ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर की एजेंसियों या संस्थाओं की रिपोर्ट को नकारते रहें, उनकी आलोचना करते रहें, लेकिन जमीनी हकीकत तो यही है कि कोविड-19 ने भारत में गरीबी और भूख की चुनौती को बढ़ाया है। पिछले दशक में देश में जिस तेजी से गरीबी और भूख की चुनौती में कमी आ रही थी, उसे अकल्पनीय कोरोना संकट ने बुरी तरह प्रभावित किया है। महामारी का आर्थिक प्रकोप विशेष रूप से मध्यम वर्ग और वंचित परिवारों के लिए बहुत अधिक रहा है, जिसके चलते कई परिवार स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर के मामले में पीछे हुए हैं।
यह बात अपनी जगह है कि सरकार ने गरीबी, भूख, परिवार कल्याण और स्वास्थ्य चुनौतियों के समाधान के लिए प्रभावी कदम उठाए हैं। कोविड के बाद इन सभी क्षेत्रों में सरकार ने काफी प्रयास किए हैं, कोरोना काल में प्रचुर खाद्यान्न उत्पादन के कारण मुफ्त खाद्यान्न की आपूर्ति से गरीबों को राहत मिली है और करोड़ों लोगों को गरीबी के नए दलदल में फंसने से बचाया गया है। लेकिन यह बात भी अपनी जगह सही है कि देश में लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार और सार्वजनिक सेवाओं में सुधार के साथ-साथ उनके जीवन-स्तर को ऊपर उठाने की दिशा में अभी और लंबा सफर तय करना है। स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें तो इस मामले में देश अब भी पीछे है। स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाना आवश्यक है। हम प्यास लगने पर कुआ खोदते हैं। स्वास्थ्य तथा शिक्षा के क्षेत्र में विशेष तौर पर शोध और अनुसंधान बढ़ाए जाने की जरूरत है। हमारे यहां लाइब्रेरी और लैब तो हैं, लेकिन वहां औपचारिकता ही अधिक होती है। स्वास्थ्य में शोध सबसे आवश्यक अंग है। डाटा कलेक्शन से लेकर उनका अध्ययन और फिर अनुसंधान में हम पीछे हैं। डिजिटल शिक्षा की जरूरत बढ़ गई है और इसका महत्व रोजगार में भी बढ़ गया है। अर्थशास्त्री मानते हैं कि अर्थव्यवस्था को अधिक दक्ष व योग्य श्रम बल की आवश्यकता है, शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम छह प्रतिशत हिस्सा खर्च किया जाना चाहिए।
यूएनडीपी की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट की आलोचना करने या इसे नकारने के बजाय देश और जनहित में हम देश में मानव विकास की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली, न्यायसंगत और उच्च गुणवत्ता वाली सार्वजनिक शिक्षा, कौशल विकास, रोजगार, सार्वजनिक सेवाओं में स्वच्छता जैसे मुद्दों पर रणनीतिक रूप से प्रभावी पहल करें। हमारे सर्वेक्षण ही जब संदेह के घेरे में रहते हैं, तो उनके आधार पर चलने वाली अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा जा सकता है। मानव विकास सूचकांक की रिपोर्ट हो या फिच की, इसका अध्ययन करके हमें अपनी योजनाओं में परिवर्तन या संशोधन करना चाहिए। आत्मनिर्भर भारत की बात करने से पहले मैदानी यथार्थ देखना होगा, केवत बातों और वायदों से काम नहीं चलेगा।
-संजय सक्सेना
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