इन मुद्दों पर गौर कौन करेगा?
बेरोजगारी और महंगाई, ये ऐसे प्रमुख मुद्दे हैं, जो किसी न किसी रूप में बने ही रहते हैं। इनमें से भी नई पीढ़ी को नई जिम्मेदारियां देने के लिए रोजगार सबसे महत्वपूर्ण होता है। परंतु क्या वास्तव में रोजगार के मुद्दे पर हम बहुत गंभीर हो पाते हैं? क्या केवल सरकार पर ही निर्भर रहते हुए इसका निराकरण हो सकता है? ये सवाल तो मौजूं हैं ही, पिछले कुछ सालों के दौरान सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो रोजगार के लिए आयोजित की जाने वाली भर्ती परीक्षाओं में घोटालों, अनियमितताओं और अन्य कारणों से लाखों बेरोजगारों का जो समय बर्बाद हो रहा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
सही ही कहा गया है- बेरोजगारी अपने आप में एक ऐसी समस्या है जो देश की आधी से अधिक जनता को दुखी करती है। जो लोग इस बीमारी से ग्रसित होते हैं, उन्हें दो तरह के दुख झेलने पड़ते हैं। पहला दुख उन्हें अपनी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाने का होता है। दूसरा दुख उन्हें शोषित महसूस कराता है, वे ऐसा महसूस करते हैं कि सरकार या समाज उनकी उपेक्षा करते हैं या उनके साथ अन्याय करते हैं। इस समस्या को हल करने के लिए सरकारों ने बहुत सारे योजनाएं बनाई हैं, पर उनमें से कई योजनाओं के प्रभाव उन लोगों तक नहीं पहुँचते जो इन योजनाओं की सबसे ज्यादा ज़रूरत हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो रोजगार के लिए जो प्रतियोगी परीक्षाएं होती हैं, उनके तौर-तरीकों और परिणामों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। देखने में आता है कि एक दशक से अधिक समय से पीएससी सहित कई परीक्षाओं के आयोजन दो-दो साल तक लटके रहे। कभी आवेदन पत्र भरे जाने के दो साल बाद तक परीक्षाएं होती हैं। कोविड-19 महामारी के कारण, कई परीक्षाओं को स्थगित या रद्द कर दिया गया। छात्रों और उम्मीदवारों के लिए इससे बहुत अनिश्चितता पैदा हो गई।
कई मामलों में उम्मीदवार पूरी मेहनत से परीक्षा देकर आते हैं और पेपर लीक की वजह से एग्जाम कैंसिल हो जाता है। इसमें व्यापम से लेकर अन्य कई कांड शामिल हैं, जिनके कारण हजारों छोत्रों का कैरियर बर्बाद हुआ। 2017 का बिहार स्टाफ सिलेक्शन कमीशन हो या राजस्थान पुलिस कांस्टेबल परीक्षा, पेपर लीक के मामले लगातार सामने आते रहते हैं। और मध्यप्रदेश में तो आए साल परीक्षाएं किसी न किसी कारण टल जाती हैं। पेपर लीक से भी बड़े मामले हो जाते हैं।
जब भी इस तरह की घटनाएं होती हैं तो बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन होते हैं। ऐसी घटनाओं को होने से रोकने के लिए कड़े सुरक्षा उपायों की मांग की जाती है। फिर कुछ दिन बाद सब ठन्डे बस्ते में चला जाता है। पेपर लीक का सबसे बड़ा नुकसान ईमानदार विद्यार्थी के दिमाग और मन पर होता है और उसका व्यवस्था से भरोसा उठ जाता है। क्या 99 प्रतिशत ईमानदार छात्रों के साथ ऐसी बेईमानी और वो भी लगातार, ठीक बात है?
तो क्या हमारे सिस्टम में इसे रोकने के लिए बुनियादी ढांचा और तकनीकी कुशलता नहीं होनी चाहिए? क्या किसी भी तरह की नकल को रोकने तथा निष्पक्ष और पारदर्शी परीक्षा प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए कड़े उपायों की जरूरत नहीं है? जो वाकई जिम्मेदार हैं, क्या कभी भी उनको दण्डित किया जाता है? कई बार तो देखा जाता है कि ऊपरी तौर पर जांच करके कुछ छोटी मछलियों को फंसा दिया जाता है और असली लोग बच जाते हैं। वे असली जिम्मेदार फिर बच्चों के भविष्य से खेलने का तानाबाना बुनने लगते हैं।
देखा जाए तो कोविड-19 नहीं भी आया होता, तो भी देश की प्रतियोगी परीक्षाओं में, खास तौर पर सरकारी नौकरी के लिए होने वाली परीक्षाओं में रिजल्ट्स और परीक्षाओं का लेट होना आम है। ये कहीं न कहीं हमारे सिस्टम की बड़ी खामी को उजागर करता है। प्रश्न तो उठेगा ही- क्या लाखों युवाओं की जिदंगी के अनेक वर्षों का कोई मोल नहीं है? सामान्य लोग एक जवाब तो देते ही हैं-जो लोग सिस्टम में बैठे हुए हैं, उनके परिजन और उनकी पीढिय़ों पर शायद ऐसी परीक्षाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें तो सरकारी से लेकर निजी क्षेत्र में जैसे गिफ्ट में नौकरियां मिल जाती हैं। और यह बात व्यावहारिक तौर पर ठीक भी दिखती है। यहां मुद्दा किसी एक राजनीतिक दल या किसी एक सरकार का नहीं है। मुद्दा बेरोजगारी का है। यह मुद्दा हमारे पूरे समाज को सालता है। यह वो मुद्दा है, जो अपराधों में वृद्धि का भी बहुत बड़ा कारण है। परंतु क्या इसकी चिंता उसी समाज को नहीं है, जो प्रदूषित हो रहा है? यदि चिंता होती, तो क्या आज ये हालात पैदा होते?
और अंत में, क्या सवाल ऐसे ही उठते रहेंगे? और क्या सवाल उठाने वाले ही इस सिस्टम के निशाने पर आते रहेंगे? ये अधिक महत्वपूर्ण है। जो इस समस्या से जूझ रहे हैं, शायद उन्हें ही इसका निराकरण करना होगा, क्योंकि जिस पीढ़ी को चिंता करना चाहिए, वो तो दूसरे मुद्दों पर खेल रही है। हां, इन मुद्दों के दम पर राजनीति भी कर रही है।
-संजय सक्सेना
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