Editorial: अर्थव्यवस्था…ये रफ्तार और वो रफ्तार…!

भारत सरकार का बजट आने वाला है। हम ट्रिलियन इकानामी की बात कर रहे हैं। हम दुनिया की सबसे तेज रफ्तार वाली अर्थव्यवस्था होने का भी दावा कर रहे हैं। लेकिन अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि भारत के आर्थिक इंजन की रफ्तार धीमी पड़ रही है और इसका सबसे ज्यादा नुकसान मध्यवर्ग को उठाना पड़ रहा है। यह केवल एक बुरी तिमाही का नतीजा नहीं है। आरबीआई समेत दुनियाभर के संगठन भारत की आर्थिक वृद्धि में कमी का अनुमान लगा रहे हैं।
अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद भारत का शेयर बाजार भी गिरता जा रहा है। ऐसा लग रहा है, मानो भारत का शेयर बाजार बाकी दुनिया के हिसाब से ही चलेगा, हमारे अनुसार नहीं। बजट से बहुत उम्मीदें हैं भी और नहीं भी हैं। लेकिन जब हम यह रिपोर्ट देखते हैं, तो असलियत कुछ और सामने आती है कि करोड़पति लोग विदेश में जमीन-जायदाद खरीद रहे हैं या इसके साथ मिलने वाला दीर्घकालिक वीजा हासिल कर रहे हैं। भारत के करोड़पति कितनी संख्या में विदेश में जाकर बस रहे हैं, इसके पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध हैं।
एक खबर पर भरोसा करें तो हेनले प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन रिपोर्ट में पिछले दो साल का आंकड़ा औसतन 5,000 बताया गया है, जो बाहर जाकर बस गये हैं।  इन अमीरों को आप कभी शिकायत नहीं करते और न ही किसी तरह के बयान देते हैं। लेकिन इनके पलायन की दिशा से इनकी राय स्वत: जाहिर हो जाती है। इनके पास ‘सरप्लस’ है, और ये भारत में निवेश करने की जगह विदेश का रुख कर रहे हैं। इनमें से कई इसलिए देश छोड़ रहे हैं क्योंकि विदेश में सुरक्षा है और गुमनाम रहने की सुविधा है। यहां भ्रष्टाचार से लेकर तमाम प्रकार के प्रशासनिक और राजनीतिक दबाव भी हैं।
‘फोर्ब्स’ के आंकड़ों पर गौर करें तो सबसे बड़े अरबपति अमीरों की संख्या केवल 200 है। तमाम करोड़पति चुपचाप देश से जा रहे हैं, तो अरबपति तेज आवाज में सरकार की तारीफ कर रहे हैं और इस तरह के मंत्रों का जाप कर रहे हैं कि ‘हमारी अर्थव्यवस्था जल्द ही सबसे बड़ी तीसरी अर्थव्यवस्था बनने जा रही है’, कि यह ‘दुनिया में सबसे तेजी से वृद्धि दर्ज करा रही विशाल अर्थव्यवस्था है’। और शायद इसीलिए ये अमीर देश में टिके भी हुए हैं।
लेकिन असलियत यह है कि ये देश में निवेश नहीं कर रहे हैं, इसलिए नहीं कि इन्हें देश से प्यार नहीं है। बात सिर्फ इतनी है कि स्मार्ट उद्यमियों को मांग बढ़ती नहीं दिख रही है तो वे कहां निवेश करें, और क्यों करें? यह उनकी जिम्मेदारी नहीं कि वे शेयरधारकों से मिले ‘रिजर्व’ को ऐसी परिसंपत्तियों पर खर्च करें, जिन्हें कोई इस्तेमाल न करे और जिनमें बने सामान को कोई न खरीदे।
हम जिस वर्ग को लेकर चिंतित हैं, शायद वह किसी सरकार की प्राथमिकताओं की सूची में ऊपर नहीं है। वह मध्यम वर्ग। देखा जाए तो ज्यादातर मांग देश की सबसे बड़ी उपभोक्ता आबादी यानी मध्यवर्ग से आती है। इस वर्ग की परिभाषा भी जटिल है, लेकिन हम यह मानकर चलें कि मध्यवर्ग का व्यक्ति वह है, जिसके पास खानपान, बच्चों की शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य और जरूरी आवाजाही पर खर्च करने के बाद कुछ पैसा बच जाता है, जिसे वह किसी चीज पर खर्च कर सके।
लेकिन क्या आपको पता है कि सालाना 12 लाख से लेकर 5 करोड़ तक कमाने वाला यह विशाल वर्ग भी आज हाथ बांधकर बैठा है और परेशान है। वह इतना अमीर नहीं है कि विदेश जा बसे, वह भी अपनी संपत्ति के साथ, जिस पर भारी टैक्स देना पड़ता है और जिसके निवेशों का मूल्य भी पिछले एक वर्ष में गिर गया है। इनमें से जो ज्यादा अमीर हैं यानी 2 करोड़ से ज्यादा कमा रहे हैं, वे अपनी आय पर प्रतिशत के लिहाज से टॉप कॉर्पोरेटों या अरबपतियों के मुकाबले करीब दोगुना टैक्स भर रहे हैं।
भारत की गाथा बनाने वाले ये लोग वे हैं, जो महत्वाकांक्षी नव-धनाढ्य हैं और जिन्होंने अपने बूते अपनी तकदीर चमकाई है, जो आम तौर पर पहली पीढ़ी वाले हैं। आज वे मानो एक साथ कई गोले दागने वाले रॉकेट लॉन्चर के हमले झेल रहे हैं। फ्यूल की कीमत चढ़ी हुई है, इनकम टैक्स कमर तोड़ रहा है, और इन्हें आप यह शिकायत करते सुन सकते हैं कि वे जो टैक्स भर रहे हैं, उसका सरकार उचित लाभ नहीं दे रही है। म्यूचुअल फंड, इक्विटी, जायदाद पर कैपिटल गेन और बॉन्डों पर टैक्स में मिलने वाली छूट हवा हो रही है।
उन्हें उन चीजों की बढ़ती लागत का झटका झेलना पड़ रहा है, जिनकी गिनती महंगाई की सुर्खियां बनाने में नहीं की जाती। उदाहरण के लिए, निजी संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाने की बढ़ती लागत को ही ले लीजिए। सो, ये लोग परेशान हैं, खरीदारी टाल रहे हैं। और शायद मांग में कमी आने के लिए मुख्यत: इन्हें जिम्मेदार माना जा सकता है।
देखने में आ रहा है कि देश में बड़ी महंगी कारों के लिए वेटिंग लिस्ट लग रही है, लेकिन छोटी कारें कम बिक रही हैं। ये महंगी कारें केवल कर्ज के दम पर खरीदी जा रही हैं, यह भी गौर करने लायक बात है। यह उच्च मध्यवर्ग कहा जा सकता है और वह इसलिए नाराज है कि वह टैक्स के रूप में जो पैसे भर रहा है, उसे गरीबों के वोट खरीदने पर खुले आम खर्च किया जा रहा है। यानि वोट के लिए रेवडिय़ां बांटी जा रही हैं और इस वर्ग को चूसा जा रहा है।
मजबूरी में यह मध्यवर्ग सत्तापक्ष का मुखर समर्थक है। सत्ता में बैठी पार्टी इस वर्ग का समर्थन अपने लिए उसी तरह तय मानकर चल सकती है, जैसे पूर्व में और पार्टियों ने अपना वोट बैंक तय कर लिया था। मध्यवर्ग शिकायत करता रहेगा मगर वफादार भी बना रहेगा, क्योंकि वह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की राजनीति को बहुत पसंद करता है।
लेकिन ऐसा कब तक चलता रहेगा, यह नहीं कहा जा सकता। निम्न मध्यम वर्ग आर्थिक असमानताओं को झेलता चला जा रहा है, जबकि निम्न वर्ग कुछ न होते हुए भी खुश है। क्योंकि वही सत्ता की रेबडिय़ों का हकदार बना हुआ है। हर तरह की नकद योजना उसके लिए है। मुफ्त इलाज, पढ़ाई से लेकर राशन तक लगभग फ्री ही मिल रहा है। तो अब असमानता की खाई बढ़ रही है मध्यम और उच्च वर्ग के बीच। क्या होगा, नहीं कह सकते, लेकिन यथार्थ थोड़ा कड़वा है। हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार कहीं खोखली साबित न हो जाए!
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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