Political

संपादकीय…..आत्हत्याओं का दौर, जिम्मेदार कौन…?

आज सुबह सुबह अखबार पढ़ा। बाकी खबरों के अलावा एक खबर पर जाकर नजर ठहर गई। एक ही खबर में पांच-पांच आत्हत्या की घटनाओं का जिक्र था। कारण अलग-अलग भले ही थे, लेकिन सभी ने अपनी जान दे दी।
शहर के जहांगीराबाद इलाके में सोमवार देर रात 28 वर्षीय छात्रा ने खुद को आग लगाकर जान दे दी। पुलिस के मुताबिक प्रारंभिक जांच में यह तथ्य सामने आया है कि युवती काफी समय से नौकरी न मिलने के कारण मानसिक रूप से परेशान थी और उसका डिप्रेशन का इलाज भी चल रहा था। गांधी नगर के द्वारिका धाम कालोनी में रहने वाली दंत चिकित्सक जूही कपूर ने अपने घर में फांसी लगाकर जान दे दी। यह कदम उठाने से पहले उन्होंने अपने पति को फोन किया और उन्हें अलविदा कहते हुए कहा कि मैं जान देने जा रही हूं। जब तक वह घर पहुंचे , तब तक वह दम तोड़ चुकी थी। पुलिस को महिला का एक सुसाइड नोट मिला है कि उसमें जान देने का कारण तनाव को बताया है।
शाहजहांनाबाद के मुंशी हुसैन इलाके में रहने वाली एक स्कूली छात्रा ने जहर खा लिया। 08 सितंबर को कोई जहरीला पदार्थ खाया था, 11 सितंबर को उसने अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। उसके स्वजनों ने सीहोर निवासी एक युवक पर छात्रा को खुदकुशी के लिए उकसाने के आरोप लगाए हैं। कोलार के कजलखेड़ा में रहने वाली 27 वर्षीय विवाहिता सोनिया गायकवाड़ ने सोमवार को घर में फांसी लगा ली, वह अपने पति के साथ रहती थी, उसने दो साल पहले ही प्रेम विवाह किया था। पुलिस जांच में सामने आया है कि सोनिया कुछ दिनों से परेशान थी और उसका घर में विवाद हुआ था। बैरागढ़ क्षेत्र के राजेंद्र नगर में रहने वाले व्यक्ति सोनू कुशवाह ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। वह बीमार था और उसका इलाज भी चल रहा था।
इन घटनाओं में कारण अलग-अलग हैं, लेकिन ऐसा लग रहा है मानो मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आत्महत्याओं का दौर कुछ ज्यादा ही तेज हो गया है।  यह भी एक बीमारी ही बन गई है। भोपाल अब बड़ा शहर हो गया है, महानगरों की श्रेणी के आसपास भी पहुंच गया है। और लगता है महानगरीय प्रकृति की बुराइयां भी यहां प्रवेश कर चुकी हैं। अपराधों की संख्या बढ़ रही है, तो बेरोजगारी, बीमारी और सामाजिक बुराइयों का ग्राफ भी बढ़ता दिख रहा है। सबसे बड़ी समस्या तनाव और अवसाद की है। समस्याओं की बढ़ती संख्या भी अपने आप में बड़ी समस्या है। व्यक्ति की सहनशीलता मानो समाप्त होती जा रही है। परेशानियों से संघर्ष की क्षमता भी कम हो रही है। छोटी-छोटी बात उसे बड़ी लगने लगती है। सडक़ों पर चलते-चलते लोग जरा सी बात पर गुस्सा करने लगते हैं।
शहरीकरण का अपना सिलसिला है। अपनी समस्याएं हैं। अपनी प्रकृति है। लेकिन इंसान में जो अनुकूलन की क्षमता होती है, वही उसकी जिजीविषा को मजबूत करती है। लेकिन हम शायद अब परिस्थितियों का सामना करने के बजाय समर्पण करने की आदत डालते जा रहे हैं। और यदि समाज की बात करें तो शायद परिवार से लेकर समाज में जो परिवर्तन आ रहे हैं, वो ऐसी घटनाओं के लिए अधिक जिम्मेदार हैं। हमारी इकाई परिवार है। परिवारों का विखंडन सबसे बड़ी समस्या है।
एकाकी होते परिवार। फिर समस्याओं का पहाड़। रोजगार के साथ ही बढ़ती भौतिकवादी प्रवृत्ति, स्टेटस की प्रतिस्पर्धा और फिर हम जो अपना ईगो बना लेते हैं, वो ईगो भी हमारे लिए कई बार समस्या बन जाता है। आत्महत्याओं के पीछे अधिकांश तात्कालिक कारण होते हैं, लेकिन कई कारण ऐसे भी होते हैं, जो लंबे समय से व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में घर कर चुके होते हैं। समस्याओं से जूझते-जूझते शायद वो अपने आप को थका मान लेता है। हार मानने लगता है। उसे लगता है कि उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा है, तो अचानक इहलीला समाप्त कर लेता है।
मानसिक अवसाद भी आज के समय की बहुत बड़ी समस्या है। कोई लगातार बीमारी के कारण अवसाद में चला जाता है तो कई लोग अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। और भी कई कारण होते हैं, जिनके कारण व्यक्ति अवसाद से घिर जाता है तो फिर उसके सामने जब कोई विकल्प नहीं होता तो आत्महत्या कर लेता है। पारिवारिक कलह के अलावा आजकल आत्महत्या के साथ ही हत्या जैसी घटनाओं के पीछे एक बड़ा कारण प्रेम संबंध भी सामने आ रहे हैं। प्रेम विवाह में आत्महत्या अधिक देखी जा रही हैं।
ऐसे में क्या समाज की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? पुलिस या सरकार क्या कर सकती है? कुछ योजनाएं चला देगी। पुलिस तो जांच करेगी और कारण पता करके कार्रवाई करेगी। लेकिन इससे समस्या का हल तो नहीं निकलेगा। ऐसे में समाज और सामाजिक संस्थाओं की जिम्मेदारी कुछ बढ़ जाती है। परंतु एक कड़वा सच यह भी है कि सामाजिक संस्थाएं व्यवसाय की ओर मुड़ गई हैं। और सामाजिक संगठन, विशेषकर जातिगत संगठन भी राजनीति में ज्यादा रुचि लेने लगे हैं। सामाजिक सरोकार केवल लिखने और दिखाने के लिए ही रह गए हैं। एकाध उदाहरण ही सामने आता है, जहां संगठन और संस्थाएं काउंसिलिंग करते दिखते हैं। ये काम भी फोटो खिंचवाकर अनुदान लेने का साधन अधिक बन गए हैं।
फिर भी यदि कोई आत्महत्या होती है, तो उसका असर पूरे समाज पर पड़ता है। और जिम्मेदार भी समाज होता है। हर व्यक्ति अपने आप को यदि ऐसे मामलों से जोड़े और विचार करे। इन घटनाओं को कैसे रोका जा सकता है? कैसे लोग आत्महत्या के लिए विवश न हों, इस पर भी विचार करना होगा। केवल योजनाएं बनाने से सब कुछ नहीं हो जाता। समाज को अपने अंदर की बुराइयां दूर करने की शुरुआत करनी ही होगी।
– संजय सक्सेना

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button