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संपादकीय….कहां हैं लोकतंत्र के पहरुए….?

कम से कम किसी लोकतांत्रिक देश के लिए तो यह कोई अच्छी स्थिति नहीं कही जाएगी कि वहां एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और उसकी फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्यों को गिरफ्तारी से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़े। हालांकि बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम जमानत देकर इन सबके सिर पर लटक रही गिरफ्तारी की तलवार फिलहाल हटा दी है, जो निश्चित रूप से राहत की बात है, लेकिन यह मुद्दा तो अभी बना हुआ है। और मुद्दा यह भी है कि क्या हम देश में लोकतंत्र का समाप्त करने की दिशा में बढ़ रहे हैं?
यह बात भी सही है कि मणिपुर अगर मई महीने से ही हिंसा की लपटों से घिरा दिख रहा है और तमाम प्रयासों के बावजूद अभी तक ये लपटें पूरी तरह शांत नहीं हो पाई हैं, तो इसके पीछे एक बड़ी भूमिका गलत और झूठी सूचनाओं के निरंतर प्रवाह की भी रही है। स्थानीय समुदायों के बीच दूरी आ गई जिसे फेक न्यूज और दुष्प्रचार अभियान और बढ़ाते रहे। इसी संदर्भ में एजीआई की फैक्ट फाइंडिंग टीम ने बताया कि कैसे ‘दोनों तरफ से परस्पर विरोधी नैरेटिव चलाए जाते रहे।’ इस रिपोर्ट पर मणिपुर पुलिस का एफआईआर दर्ज कर लेना जितना बेतुका और आपत्तिजनक है, उससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है खुद मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह का इस मुद्दे पर प्रेस में आकर बयान देना और व्यक्तिगत रूप से एजीआई की रिपोर्ट की निंदा करना।
वैसे भी एन बिरेन सिंह विवादास्पद ही रहे हैं। वे अपने गिरेबान में झांकने के बजाय दूसरों पर बुलडोजर चलाने के आदतन हो गए हैं। जब मणिपुर सरकार प्रदेश में कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर अपनी नाकामी के कारण खुद कटघरे में है, वह ऐसा जताने की कोशिश कर रही है कि उसे सवाल किया जाना पसंद नहीं। यह तानाशाहीपूर्ण व्यवहार ही कहा जाएगा। हालांकि किसी भी संस्था की कोई भी रिपोर्ट आलोचना से ऊपर नहीं होती। उस पर सवाल भी उठाए जा सकते हैं और उससे असहमति भी दर्ज कराई जा सकती है। लेकिन अगर कोई मुख्यमंत्री कुछ पत्रकारों को देशद्रोही और व्यवस्था विरोधी बताने लग जाए तो उससे बेहतर रिपोर्टिंग सुनिश्चित करने में कोई मदद नहीं मिलती। इस तरह की पुलिस कार्रवाई से मीडिया का स्वतंत्र कामकाज बाधित होता है।
यहां गौर करने की बात है कि मणिपुर राज्य के हिंसा पीडि़त लोगों के बीच राहत और पुनर्वास के कार्यों में मदद के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित कमिटी में किसी मणिपुरी को स्थान नहीं मिला तो इसके पीछे भेदभाव और पक्षपात की आशंकाओं को खत्म करने की ही भावना थी। राज्य सरकार ने अपने अफसरों को सोशल मीडिया ग्रुप्स से हटने को कहा तो उसके पीछे ये खबरें थीं कि नौकरशाही और पुलिस में जातीय आधार पर विभाजन दिख रहा है। ऐसे माहौल में विश्वास बहाल करना आसान नहीं होता।
इसके लिए कड़वे सच को न सिर्फ सुनना होगा बल्कि उसे स्वीकार करना और उससे निपटना भी होगा। लेकिन बिरेन सिंह और ऐसे ही कुछ नेता कड़वा सच कभी सुनना पसंद नहीं करते। जिस व्यक्ति के कार्यकाल में पूरे राज्य में विभाजन की स्थिति बन गई हो, जो लगातार पक्षपातपूर्ण बयान और पक्षपातपूर्ण कार्यवाहियों के लिए ही जाना जाता है, उससे किसी तरह की निष्पक्षता की तो वैसे भी उम्मीदन नहीं की जा सकती। मणिपुर में सोशल मीडिया पर रोक लगाया जाना तो समझ में आता है, लेकिन मीडिया पर रोक का कोई औचित्य इसलिए नहीं है, क्योंकि सरकार तक सही हालात तो अच्छा मीडिया ही पहुंचाता है। संवाद और सूचनाओं के प्रवाह पर लगी रोक हटाते हुए राज्य से बाहर के मीडिया को भी पूरी पहुंच देनी होगी। साथ ही बिरेन सिंह सरकार  सदस्यों के खिलाफ दायर एफआईआर को वापस लेने की प्रक्रिया के साथ इस दिशा में सही शुरुआत कर सकती है।
पूरे देश की मीडिया को भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाना चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में सच को दबाया जाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता। मीडिया के साथ समस्या यह है कि वह भी बटा हुआ है। दबाव में काम कर रहा है। प्रेस की आजादी ही देश में खतरे में मानी जा रही है। फिर भी मुख्यमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति में थोड़ी सी तो राज्य और जनता के साथ ही लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्धता होना जरूरी है। इसके लिए केंद्र सरकार को भी मणिपुर के मुख्यमंत्री पर दबाव बनाया जाना चाहिए।
– संजय सक्सेना
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