Openion: इलेक्टोरल बॉन्ड…
खुलासे का कितना असर..? और किस पर…?

सरकार द्वारा 2019 और 2024 के बीच राजनीतिक दलों को जारी किए गए इलेक्टोरल बॉन्ड्स के अधिकांश विवरण सार्वजनिक हो चुके हैं, इसकी हलकी-फुलकी चर्चा तो हो रही है, लेकिन कोई ऐसी प्रतिक्रिया आम आदमी के बीच नहीं है, जिससे यह माना जा सके कि यह गंभीर मामला है। जबकि जो भी जानकारी सामने आई है, उससे यह तय हो गया है कि इलेक्टोरल बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को साधने का तो किया ही गया है। साथ ही यह भी संकेत मिल रहे हैं कि किस तरह से इन बांड्स के बदले कंपनियों ने सरकारों को साधने की कोशिश की है। यही नहीं, यह भी सामने आ रहा है कि फर्जी यानि शैल कंपनियां भी इसमें शामिल करके काले धन का कांसेप्ट ही बदल दिया गया।
एक संदर्भ के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक पांच साल के दौरान 37 से अधिक चुनाव होते हैं। स्थानीय निकाय चुनावों को अगर छोड़ भी दें तो यह लगभग सात चुनाव सालाना का औसत बनता है। इन चुनावों के लिए हर साल 75 हजार करोड़ रुपए से अधिक धनराशि की जरूरत होती है। यही नहीं, साल-दर-साल चुनाव खर्च बढ़ता ही जा रहा है। सामान्य तौर पर ही देखा जाता है कि चुनाव आयोग की खर्च सीमाओं से परे न जाने कितना गुना खर्च चुनाव में हो जाता है। यह आम आदमी भी जानता है।
अब, इलेक्टोरल बांड पर आते हैं। इस खुलासे से एक बात तो यह साफ हो गई कि काला धन सरकारी कानून के दायरे में लाने का खूबसूरत प्रयास ही हुआ है। साथ ही यह तय हो गया है कि व्हाइट मनी से दिए जाने वाले दान से कंपनियों को करों में छूट मिलती थी, इसलिए सालाना डोनेशन का एक निश्चित हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड्स के माध्यम से दिया जाता था। बाकी पैसा वैसे ही कैश बना रहा, जैसा कि वह दशकों से था।
अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि इन बांड्स की आड़ में काला धन फिर से कॉर्पोरेट्स और व्यक्तियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने का पसंदीदा तरीका बन जाएगा। इलेक्टोरल बॉन्ड्स की शुरुआत से कैश में दिया जाने वाला डोनेशन खत्म नहीं हो गया था, लेकिन कम से कम उनमें मामूली कमी तो आई थी। पर अब फिर से बढ़ जाएगा। दूसरे, कोई भी कंपनी या व्यक्ति अब सरकार की गोपनीयता की प्रतिज्ञा पर भरोसा नहीं करेगा। दानदाताओं के नाम सार्वजनिक करने और उनके द्वारा डोनेट की गई रकम का राजनीतिक दलों से मिलान करने से गोपनीयता की प्रतिबद्धता भंग हुई है। जबकि गोपनीयता को कायम रखे जाने का आश्वासन ही इलेक्टोरल बॉन्ड्स के विचार के मूल में था।
यह भी सार्वजनिक हो गया है कि आम आदमी पार्टी, बीजू जनता दल, बीआरएस जैसी छोटी पार्टियों को उनकी संसदीय ताकत की तुलना में इलेक्टोरल बॉन्ड्स का अनुपातहीन हिस्सा मिला है। सवाल तो उठता है कि टीएमसी को कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी (1,422 करोड़ रु.) की तुलना में अधिक धन (1,610 करोड़ रु.) मिलना क्या बताता है? जब व्हाइट-डोनेशन के रूप में इतना पैसा दिया गया हो तो मेज के नीचे ब्लैक मनी के रूप में कितना दिया जा रहा होगा? यह भी अनुमान लगाया जा सकता है।
एक महत्वपूर्ण फैक्टर इलेक्टोरल बॉन्ड्स में बदले की भावना का होना है। कई दानदाता कंपनियां इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र की हैं, जिनकी विभिन्न राज्यों में परियोजनाएं हैं। उदाहरण के लिए, हैदराबाद स्थित मेघा इंजीनियरिंग एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर ने न केवल भाजपा (584 करोड़ रुपए), बल्कि बीआरएस (195 करोड़ रुपए) को भी उदारतापूर्वक दान दिया, जो कि उस समय तेलंगाना में सत्ता में थी। यानि साफ है कि ठेकों के बदले छोटा कमीशन भले ही काले धन के रूप में दिया गया होगा, लेकिन बड़ा कमीशन बांड के रूप में करोड़ों में देकर अपने व्यवसाय का रास्ता और सुगम कर लिया गया।
यह भी साफ हो गया है कि बांड के माध्यम से चंदा देने वाली कंपनी को कई राज्यों में बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं से उपकृत किया गया है। फ्यूचर गेमिंग एंड होटल सर्विसेस का मामला तो और दिलचस्प है। उसने टीएमसी को 542 करोड़ का डोनेशन दिया, जो कि टीएमसी को मिले कुल चंदे का एक तिहाई था। क्या इसके पीछे भी कोई बदले की भावना थी? अजीब बात है कि इसी गेमिंग कंपनी ने डीएमके को भी 503 करोड़ रुपए का दान दिया, जो कि पार्टी को मिले कुल दान का लगभग 80 प्रतिशत है।
2019 से 2024 के बीच डोनेशन के रूप में सबसे अधिक राशि भारतीय जनता पार्टी (6,061 करोड़ रुपए) को मिली। टीएमसी को 1,610 करोड़ तो कांग्रेस को 1,422 करोड़ रुपए मिले। लेकिन 2019 में कांग्रेस (52 सांसद) और तृणमूल कांग्रेस (22 सांसद) के मुकाबले भाजपा की संसदीय ताकत (303 सांसद) कहीं ज्यादा थी। लेकिन यहां पर अहम मुद्दा कैश डोनेशन का निरंतर बने रहना है। देखा जाए तो राजनीतिक पार्टियों को सिर्फ लोकसभा या विधानसभा चुनावों के दौरान ही नहीं, बल्कि साल भर ही फंड की जरूरत होती है। काला धन राजनीतिक फंडिंग का प्रमुख स्रोत बना हुआ है, जो कि सफेद धन वाले इलेक्टोरल बॉन्ड्स से कहीं अधिक है।
2019-2024 में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के माध्यम से सभी दलों को दान की गई राशि 20,000 करोड़ रु. से भी कम थी, यानी सालाना 4,000 करोड़ रु.। यह हर साल चुनाव के लिए जरूरी धन का एक अंश भी नहीं है, बाकी खर्च की बात तो अलग ही है। राजनीतिक दलों को चुनावों के बीच कार्यकर्ताओं को भुगतान करने और रखरखाव के खर्च के लिए भी धन की जरूरत होती है। एक अनुमान के अनुसार, भारत के राजनीतिक दलों को काम करने और चुनाव लडऩे के लिए हर साल एक लाख करोड़ रु. की जरूरत होती है। तो फिर यह पैसा कहां से आता है?
भारतीय स्टेट बैंक के दस्तावेजों से पता चलता है कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स से प्रतिवर्ष लगभग 4,000 करोड़ रु. मिलते हैं। शेष 96,000 करोड़ कैश से आते हैं। साफ है कि इसी से काले धन की अर्थव्यवस्था बदस्तूर जारी रहती है। अब जब दानदाताओं की गोपनीयता भंग हो जाने के बाद कॉर्पोरेट और व्यक्ति बॉन्ड्स के जरिए सफेद पैसा नहीं देंगे तो इससे काला धन को प्रसार तो और व्यापक हो ही जाएगा।
भले ही यह खुलासा हमारे लोकतंत्र को धक्का देने वाला है। राजनीतिक दलों और कारपोरेट के नेक्सस को एकदम उजागर कर दिया है, फिर भी जनता मूक दर्शक ही रहेगी, शायद। हां, इलेक्टोरल बॉन्ड्स का खुलासा होने से इतना फर्क अवश्य पड़ सकता है कि सरकार के आश्वासन में दानदाताओं का भरोसा कम होगा और चुनावी चंदे का कारोबार फिर से काले धन के रूप में बढ़ जाए, तो आश्चर्य नहीं होगा।
– संजय सक्सेना

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Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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