संजय सक्सेना
मनरेगा अब वीबी जी राम जी हो गया है। सरकार इस बात पर जोर दे रही है कि इसमें काम के न्यूनतम दिन सौ से बढ़ाकर 125 कर दिए हैं। यह अच्छी बात है, लेकिन इसके बाद भी कई सवाल उठाये जा रहे हैं। विपक्ष ने भी केवल नाम बदलने पर ऐतराज नहीं किया, अपितु कुछ और मुद्दों पर विरोध किया है। एक अहम सवाल तो यह भी है कि क्या पहले निर्धारित सौ दिन काम मिल पाता था, और क्या वास्तव में अब 125 दिन काम मिलेगा?
असल में, काम के अधिकार के तहत स्थानीय निकायों, विशेषकर पंचायतों को जिम्मेदारी दी गई थी कि वे स्थानीय स्तर पर चिह्नित परियोजनाओं की सूची से काम उपलब्ध कराएं और उनका क्रियान्वयन करें। मनरेगा ला कर इसे संस्थागत रूप दिया गया था। पहले इसमें भी घोटाला हुआ, लेकिन धीरे-धीरे डिजिटलीकरण, जीपीएस टैगिंग और मजदूरी के सीधे बैंक खातों में भुगतान से इसमें पारदर्शिता और जवाबदेही मजबूत हुई। इसके साथ ही, राज्यों ने मनरेगा को अन्य बुनियादी ढांचा योजनाओं के साथ जोड़ा, जिससे टिकाऊ परिसंपत्तियों का निर्माण भी हुआ।
अब मनरेगा की जगह जो नई योजना बनी है, उसके तहत जो बदलाव किया गया है, उसमें पुराना मॉडल बदला गया है। अब विशेषज्ञ कह रहे हैं कि चयनित क्षेत्रों और सीमित कार्यों को एक केंद्रीकृत ढांचे में सीमित कर देने से स्थानीय स्तर पर समस्या खड़ी हो सकती है। खेती के मौसम के दौरान होने वाले कार्यों को बंद कर दिया गया है, इससे खेत-मजदूर को नुकसान होना तय है। जबकि पुरानी योजना के तहत मनरेगा ने कृषि मजदूरी को बेहतर बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई थी।
नई व्यवस्था में एक चिंता का विषय यह है कि राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दी गई है, जबकि पहले सामग्री की लागत का केवल 10 प्रतिशत थी। इससे राज्यों के संसाधनों पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। जीएसटी के बाद कर-संग्रह मुख्यतया केंद्र के हाथ में चला गया है (ईंधन पर वैट और शराब पर उत्पाद शुल्क को छोडक़र)। और वसूली का हिस्सा मिलने के लिए राज्यों को इंतजार करना पड़ता है। ऐसे में सीमित संसाधनों वाले राज्य 40 प्रतिशत हिस्सेदारी को वहन कर पाएंगे, इसमें संदेह ही है। इसलिए मजदूरी के भुगतान में देरी होना तो तय है, साथ ही काम न मिलने की स्थिति भी बन सकती है।
वीबी जी राम जी में एक और शर्त जुड़ी है, जिसमें कहा गया है कि काम फंड की उपलब्धता के अनुसार दिया जाएगा। इसका अर्थ है कि काम पर सीमा तय कर दी गई है, जो ‘काम के अधिकार’ की मूल भावना के विपरीत है। अब काम तभी मिलेगा, जब पैसा होगा। नई व्यवस्था में जिन क्षेत्रों को कार्य के लिए चिह्नित किया गया है, वे भी श्रम की तुलना में अधिक सामग्री-आधारित हैं। उदाहरण के लिए जल परियोजनाओं में अधिकतम खर्च पाइप और टैंक निर्माण पर होता है, यही स्थिति टॉयलेट्स के निर्माण में भी है।
इसमें श्रम आधारित रोजगार की संभावनाएं सीमित होना तय है। इसके विपरीत, पहले की व्यवस्था के तहत सडक़ निर्माण में मिट्टी के काम, कृषि भूमि में कार्य, कुओं का निर्माण जैसे श्रम-प्रधान कार्य संभव हो पाते थे, जिससे अधिक रोजगार सृजित होते थे। और अधिक लोगों को काम मिल जाता था।
असल में काम के अधिकार की मूल भावना तो यह है कि परियोजनाओं की उपलब्ध सूची से, निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर, मांग के अनुसार रोजगार उपलब्ध कराया जाए और इससे परिसंपत्तियों का निर्माण भी होना चाहिए। कार्य क्षेत्रों को सीमित करने की अवधारणा केवल पिछड़े और आदिवासी जिलों तक ही उचित हो सकती है। लेकिन निर्णय लेने का अधिकार तो विकेंद्रीकृत होना चाहिए। कई बार आपदा की स्थिति में बड़े पैमाने पर काम लेना अनिवार्य हो जाता है- जैसा कि महामारी के दौरान हुआ था।
कोविड जैसी महामारी के दौरान भी मनरेगा खाद्यान्न वितरण की तुलना में कहीं अधिक समावेशी योजना साबित हुई थी और मजदूरी के माध्यम से भुगतान ने लाभार्थियों की गरिमा भी बनाए रखी थी। कुल मिलाकर नई योजना में नाम बदलने के साथ ही जो प्रावधान बदले गए हैं, उनका क्या असर होगा, यह तो बाद में ही पता चलेगा, लेकिन इससे राज्यों पर बोझ बढऩे के साथ ही काम की अनिश्चितता भी बढ़ेगी।
Editoria
मनरेगा: काम के दिन बढ़े, लेकिन..
