Editorial
सर्वेक्षण बनाम मतदाता की चुप्पी


सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम द्वारा हाल ही में 18 राज्यों में दस हजार मतदाताओं के बीच किए गए चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण से पता चलता है कि जब चुनाव दरवाजे पर दस्तक दे रहे होते हैं तो मतदाताओं में बेचैनी के संकेत दिखाई देने लगते हैं। सर्वेक्षण में महंगाई और बेरोजगारी बहुत बड़े मुद्दे अवश्य सामने आए हैं, लेकिन राम और राष्ट्रवाद के मुद्दे इन पर भारी पड़ रहे हैं।
सर्वेक्षण के निष्कर्षों से बढ़ती बेरोजगारी के बारे में मतदाताओं की चिंता का स्पष्ट संकेत मिलता है। लगभग 62 प्रतिशत मतदाताओं का मानना है कि पहले की तुलना में अब नौकरी ढूंढना अधिक कठिन हो गया है। इसका अनुभव गांवों, कस्बों, शहरों- सभी के लोग कर रहे हैं। बड़ी संख्या में लोग बढ़ती कीमतों की मार भी महसूस कर रहे हैं। लगभग 55 प्रतिशत लोगों ने उल्लेख किया कि पिछले पांच वर्षों के दौरान कीमतें बढ़ी हैं, जबकि अन्य 19 प्रतिशत का मानना है कि इनमें गिरावट आई है। अलग-अलग अनुपात में, अमीर और गरीब दोनों ही महंगाई से प्रभावित हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान बेरोजगारी और महंगाई के संबंध में स्थिति नहीं बदली है और इनसे जुड़ी चिंताएं वर्षों से बनी हुई हैं। लेकिन सवाल वही है, इस बार भी जनता से जुड़े और उसे प्रभावित करने वाले ये मुद्दे  आखिर चुनावी मुद्दों के रूप में क्यों नहीं हैं?
सर्वेक्षण के निष्कर्षों ने भारत में समान नागरिक संहिता की दिशा में सरकार के रुख पर लोगों के बड़े पैमाने पर समर्थन का भी संकेत दिया है। लेकिन इसमें सबसे खास बात यह रही कि  चुनाव से पहले भाजपा को कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों यानि इंडिया गठबंधन पर जिस मुद्दे पर निर्णायक बढ़त मिलती है, वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। सर्वे में दावा किया गया है कि लोगों का मानना है मोदी ने दुनिया में भारत की छवि को ऊपर उठाते हुए उसे मजबूत भी बनाया है। इसमें यह भी सामने आया है कि विपक्षी दलों में शायद ही कोई ऐसा नेता हो, जो नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की बराबरी कर सके। मोदी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर विपक्ष पर सीधा हमला बोला है, जो बड़ी संख्या में भारतीय मतदाताओं को आकर्षित करता है। हालांकि मोदी पर सीधे हमला बोलने वाले आप नेता अरविंद केजरीवाल जेल में हैं। और सबसे प्रमुख विपक्षी नेता के रूप में राहुल गांधी सामने आ चुके हैं। लेकिन सर्वेक्षण में राहुल गांधी को शायद बहुत अहमियत नहीं दी गई। ये कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं सर्वे करने वालों का जोर राहुल पर रहा ही नहीं।
जिस तेजी से चुनाव के समय ईडी और सीबीआई ने विपक्षी नेताओं को कथित भ्रष्टाचार के मामलों में जेल भेजा है और छापे मारे हैं, वह अभूतपूर्व है। लेकिन सर्वे में इसे सकारात्मक तौर पर लिया गया है। हालांकि इंडिया गठबंधन के सहयोगी भी मोदी पर भ्रष्टाचार में शामिल होने का आरोप लगा रहे हैं और इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से भाजपा को बड़ी रकम मिलने का मुद्दा उठा रहे हैं, लेकिन इससे मोदी की छवि पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। वैसे पार्टी के रूप में भाजपा की छवि पर जरूर मतदाताओं द्वारा सवाल उठाए जाने लगे हैं। लेकिन सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण जो निष्कर्ष निकाला है, वह उसके सत्तापक्ष के रुझान को साफ दिखाता है। यह चुनाव का मुख्य मुद्दा शीर्ष नेतृत्व यानी मोदी फैक्टर को ही बता रहा है और सोशल मीडिया पर भी यही दर्शाया जा रहा है।
जहां तक चुनाव मैदान की बात है तो पहले चरण के लिए आज मतदान हो रहा है, लेकिन मतदाताओं का उत्साह नदारद ही दिख रहा है। मुद्दों को लेकर कोई बात ही नहीं हो रही है। सत्तापक्ष के नेताओं के भाषणों में जो मुद्दा सबसे प्रमुख तौर पर सामने आ रहा है, वह विपक्षी नेताओं पर राम और सनातन विरोधी होने का आरोप। यह साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष राम विरोधी है। चंूकि सत्तापक्ष के पास न केवल मीडिया अपितु सोशल मीडिया से लेकर तमाम इन्फ्लुएंसर्स का भंडार है, विश्वस्तरीय प्रबंधन भी है, इसलिए कहीं न कहीं बाजार से असल मुद्दे गायब ही कर दिए गए हैं। सर्वेक्षणों के निष्कर्ष भी आजकल प्रायोजित कराए जाने लगे हैं।
और सबसे अहम बात यह है कि चुनाव के पहले से सत्तापक्ष द्वारा केवल अपनी जीत का विश्वास ही नहीं जताया जा रहा, अपितु सीटों की संख्या भी बताई जा रही है। पिछले विधानसभा चुनावों पर नजर डालें तो कई राज्यों में राजनीतिक विश्लेषकों के अनुमान  से लेकर पूरे माहौल के खिलाफ ही परिणाम आए थे। लेकिन कुछ एक्जिट पोल आश्चर्यजनक रूप से सही साबित हुए थे। अब राजनीतिक विश्लेषक, समीक्षक और सफोलाजिस्ट, जो वास्तव में कभी सौ फीसदी नहीं, तो नब्बे या अस्सी प्रतिशत तक सही साबित हुआ करते थे, अब खामोशी ओढ़ कर बैठ गए हैं। वो जान रहे हैं कि जो ऐलान किया जा रहा है, उसी के अनुसार परिणाम आने हैं, क्यों और कैसे? इसके जवाब किसी के पास नहीं हैं। शायद यही सत्तापक्ष की सफलता का आधार है। फिर भी, मतदाता की चुप्पी बहुत कुछ कहती है, लेकिन इस पर प्रबंधन एक बार फिर भारी पड़ेगा, ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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