संपादकीय
फिर क्यों नहीं दूर हो रही गरीबी?


सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में इस समय लगभग पच्चीस करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। कुछ अन्य आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 60 प्रतिशत लोग प्रतिदिन 3.10 डॉलर यानि 258.41 रुपए से कम पर जीवन यापन करते हैं। यह विश्व बैंक द्वारा निर्धारित औसत गरीबी रेखा है। वहीं 21 प्रतिशत यानि 25 करोड़ से अधिक लोग, प्रतिदिन 2 डॉलर यानि 166.71 रुपए से भी कम पर जीवन बचाए हुए हैं।
कुछ और आंकड़ों पर जाएं तो
सीएमआईई के उपभोक्ता पिरामिड घरेलू सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर जनवरी 2024 में 6.8 प्रतिशत से बढक़र फरवरी 2024 में 8 प्रतिशत हो गई। जहां शहरी भारत में बेरोजगारी दर कम हुई, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में इसमें काफी वृद्धि हुई है। 2023 के मजबूत दौर के बाद 2024 में एफएमसीजी सूचकांक में गिरावट के लिए कई फैक्टर्स को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
इधर, बैंकों को अधिक एनपीए होने और शुद्ध घरेलू वित्तीय बचत के साथ ही पारिवारिक बचतों में गिरावट का डर है, जो पिछले वर्षों के 7.1 प्रतिशत की तुलना में 2023 में 5.1 प्रतिशत की तेज गिरावट दर्शाती है। इसकी वजह कम आमदनी और अधिक ईएमआई है, लेकिन यह मजबूरी है। लोग रोजाना की जिंदगी जीने के लिए भी कर्ज ले रहे हैं। साथ ही उपभोक्ता खर्च को प्रभावित करने वाले व्यापक आर्थिक बदलाव हो रहे हैं। और रोजमर्रा के खर्चों को प्रभावित करने के लिए सबसे ज्यादा महंगाई जिम्मेदार है।
आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में गरीबी का स्तर आज भी चिंताजनक है, लेकिन यह निश्चित रूप से केवल वित्त यानि पैसे की उपलब्धता का मामला नहीं है। 10वीं योजना के बाद से प्रत्येक जिले को लगभग 800 करोड़ का फंड मिल ही रहा था, जो 15 लाख की आबादी वाले जिले के लिए पिछले कुछ वर्षों में बढक़र दो हजार करोड़ हो गया है। साफ है कि लगातार बजट में वृद्धि हो रही है। और सााि ही गरीबों के लिए योजनाओं का दायरा और अधिक व्यापक होता जा रहा है।
एक बात और, जिस फंड की बात कर रहे हैं, यह फंड कर्मचारियों के वेतन पर होने वाले व्यय को कवर नहीं करता। यह ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे, कृषि और संबंधित बागवानी, मछली पालन, फूलों की खेती, सामाजिक सुरक्षा उपायों, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, स्वच्छता, जीवन की गुणवत्ता में सुधार आदि तमाम पहलुओं को कवर करने के लिए है। इनमें से प्रत्येक के लिए एक योजना है और कई ओवरलैपिंग योजनाएं भी हो सकती हैं। इस तरह कंवर्जेंस का कॉन्सेप्ट 10वीं योजना में पेश किया गया था और 11वीं योजना के बाद से वह आज तक एक प्रणाली बना हुआ है।
आज मनरेगा के तहत 100 दिनों के वेतनशुदा रोजगार की गारंटी दी जा रही है या सब्सिडी वाले खाद्यान्न की पीडीएस प्रणाली अब कथित रूप से 80 करोड़ व्यक्तियों को 5 किलो मुफ्त खाद्यान्न दे रही है। देखा जाए तो इन सभी योजनाओं का लक्ष्य गरीबों की मदद करना है। इससे पूर्व अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने के लिए ‘अंत्योदय’ कार्यक्रम भी चलाए गए थे। गरीबी रेखा से नीचे मौजूद व्यक्तियों की संख्या पर बहस हो सकती है, लेकिन सवाल तो यहा उठता है कि जब इतनी योजनाएं गरीबों के लिए बनाई जा रही हैं। उन्हें नकद राशि तक दी जा रही है, फिर गरीबों का आंकड़ा और गरीबी का स्तर सही मायने में कम क्यों नहीं हो रहा है?
यह आलोचना की बात नहीं है, जमीनी सच्चाई है कि मनरेगा के बाद ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले लोग नहीं मिल पा रहे हैं। एक तरफ ग्रामीण बेरोजगारी बढ़ती दिख रही है, तो दूसरी ओर काम करने वाले श्रमिक नहीं मिल रहे हैं। यही विरोधाभास हमारे लिए दुखदायी है। हर गरीब को मुफ्त राशन मिल ही रहा है। मनरेगा में काम हो या न हो, सौ दिन का पारिश्रमिक मिल रहा है। मकान मिल रहा है। अब तो नकद राशि भी महिलाओं को मिल रही है। हर चीज के लिए कर्ज मिल रहा है, आसानी से। फिर काम कौन करे? और क्यों करे? यह भी भावना देखने को मिल रही है।
यह मनोवैज्ञानिक सच है कि जब हमें मुफ्त में सब कुछ मिल रहा है तो हम काम क्यों करें? एक बड़ी संख्या इस विचार वाली तैयार हो रही है। यही कारण है कि हमारे देश में मुफ्त योजनाओं को बंद करने की बात भी उठने लगी है। इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे और उसके बाद लागू तमाम योजनाओं से लेकर आज तक हम अरबों रुपए खर्च कर चुके, फिर गरीबी खत्म क्यों नहीं हो रही? जिस हिसाब से खर्च हो रहा है, उस अनुपात में गरीबों की संख्या कम क्यों नहीं हो रही है? इस पर विचार बहुत जरूरी हो गया है। हम काम करने वालों के हिस्से का बड़ा हिस्सा मुफ्तखोरी पर खर्च कर रहे हैं, इस बिंदु पर भी विचार करना होगा। काम के बदले मजदूरी बढ़ाएं, काम के बदले पैसे अधिक दें, यह तो उचित है, लेकिन बिना काम के घर बैठे पैसे दिए जाएंगे तो न तो स्तर सुधरने वाला और न ही गरीबी दूर होगी।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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