Editorial: बीमा कंपनियों का मायाजाल और लोकपाल… हाल बेहाल…

चाहे बैंकिंग लोकपाल हो या बीमा लोकपाल, ये केवल नाम के ही लोकपाल हैं। सामान्य तौर पर तो उनकी नियुक्ति के औचित्य पर ही सवालिया निशान लग जाता है। यथार्थ में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा लोगों की शिकायतें या तो सुनी ही नहीं जाती हैं या उन्हें खारिज कर दिया जाता है। आज की एक खबर पर गौर किया जाए तो देशभर में बीमा लोकपाल 23  शिकायतें तो बिना सुने खारिज कर देता है। यानि लोकपाल को जो जिम्मेदारी दी गई है, उसे निभाने की औपचारिकता भी नहीं दिखती।
खबर में बीमा कंपनी द्वारा मोटर इंश्योरेंस क्लेम खारिज होने से परेशान अश्विन प्रताप सिंह दिल्ली स्थित बीमा लोकपाल के कार्यालय पहुंचे। वहां सुनवाई नहीं हुई। इस पर उन्होंने सीधे वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से सोशल मीडिया पर गुहार लगाई। वित्त मंत्री ने संज्ञान लेते हुए इसे वित्तीय सेवा विभाग (डीएफएस) को टैग कर मदद करने को कहा। अश्विन अकेले नहीं हैं। एक मामले में वित्त मंत्री ने टैग कर दिया, लेकिन हजारों उन मामलों का क्या, जो वित्त मंत्री को टैग नहीं किये जाते हैं।
खबर में बताया गया है कि 16 प्रतिशत में ही अवार्ड मिलता है। अवार्ड का अर्थ बीमा लोकपाल द्वारा शिकायतकर्ता को हुए नुकसान के लिए मुआवजे के रूप में दी जाने वाली राशि से होता है।  27 प्रतिशत मामलों में केवल सिफारिश की जाती है। 15 प्रतिशत मामले कंपनियों के हक में जाते हैं। बाकी शिकायतें या तो वापस ले ली जाती हैं या सुनवाई का इंतजार करती रहती हैं। बीमा लोकपाल का दरवाजा खटखटाने वाले करीब 80 प्रतिशत लोगों को उपभोक्ता फोरम या हाईकोर्ट जाना पड़ता है।
और उपभोक्ता फोरम के मामलों की हालत ये है कि जिन मामलों को लोकपाल ने सुनवाई योग्य ही नहीं माना, उन्हीं में उपभोक्ता फोरम या हाईकोर्ट ने उपभोक्ता के हक में फैसला सुनाया। जिनमें लोकपाल ने ग्राहकों के हक में फैसले दिए, बीमा कंपनियों ने वे फैसले माने ही नहीं। देखा जाए तो उपभोक्ता फोरम के अधिकांश मामले कंपनियां नहीं मानतीं, इसके लिए उच्च स्तर पर जाना पड़ता है या कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है।
एक हाईकोर्ट के वकील के एक क्लाइंट की गाड़ी भोपाल में दुर्घटनाग्रस्त हो गई। बीमा कंपनी ने क्लेम देने से मना कर दिया। वो बीमा लोकपाल गए। लोकपाल ने माना कंपनी ने गलत आधार पर दावा ठुकराया। मगर कंपनी ने आदेश मानने से ही इनकार कर दिया। मजबूरन उन्हें हाईकोर्ट जाना पड़ा। कंपनी ने कोर्ट में कहा, बीमा लोकपाल ने गलत आदेश दिया है। मामला अभी कोर्ट में ही विचाराधीन है।
आंकड़े तो आंकड़े होते हैं, लेकिन सही बात यह है कि बीमा एक ऐसी कथित सुविधा है, जिसके मायाजाल में सरकार से लेकर आम आदमी तक उलझ तो जाता है, लेकिन उसे समय पर न्यायोचित क्लेम मिल पाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। बीमा कंपनियां अपने आप को सरकार और कोर्ट से भी ऊपर मानती हैं। हजारों नहीं बल्कि लाखों ऐसे मामले अटके होंगे, जिनमें उपभोक्ता फोरम से लेकर अदालतों ने फैसला दे दिया है, लेकिन बीमा कंपनियां उन पर अमल नहीं कर रही हैं।
बीमा, खासकर वाहनों का बीमा और स्वास्थ्य बीमा, इनमें बहुत ज्यादा लोचा होता है। कई कंपनियों ने तो नोडल कंपनियां भी रख ली हैं। जैसे यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी ने एमडी इंडिया को नोडल कंपनी बनाया हुआ है, जो पत्रकारों का बीमा भी करती है। लेकिन इसमें जितनी परेशानी का सामना बीमा धारकों को करना पड़ता है, उससे बेहतर तो बिना बीमे के इलाज कराना हो जाता है।
स्वास्थ्य बीमा की बात करें तो इतनी शर्तें लाद दी जाती हैं कि हजारों लोग तो हर साल बीमे का प्रीमियम भर देते हैं, उसके बदले उनका इलाज हो ही नहीं पाता है। जिनके पास इलाज के पैसे नहीं होते, उनका तो कई बार बीमा होने के बाद भी इलाज शुरू नहीं हो पाता। बीमार आदमी का इलाज शुरू करने में अस्पताल और बीमा कंपनी की लापरवाही भारी पड़ जाती है। घंटों तक उसे इलाज के लिए इंतजार करना पड़ता है। भोपाल जैसे शहर में ही हजारों बीमित लोगों को सही समय पर इलाज नहीं मिल पाता।
और इन मामलों में बीमा लोकपाल की भूमिका बहुत ही शर्मनाक होती है। वहां हजारों शिकायतें सुनी ही नहीं जाती हैं। बिना सुने खारिज कर दी जाती हैं। सबसे खास बात तो यह है कि बीमा कंपनियां जिस तरह की शर्तें रखती हैं, उनके बारे में लोग जान ही नहीं पाते हैं। और न ही पूरी शर्तें पढ़ पाते हैं। उन्हें पढऩे भी नहीं दिया जाता। बीमा करते समय कंपनी के अधिकारी जितने उदार होते हैं, मौका पडऩे पर उतने ही कठोर हो जाते हैं। सबसे गंभीर मामला तो बीमा लोकपाल का है, सरकार को कम से कम लोकपाल को अधिक संवेदनशील बनाने की जरूरत है। करोड़ों रुपए का गोलमाल बीमा के जरिये हो रहा है, कम से कम लोगों को समय पर राहत ही मिल जाये।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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