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संपादकीय….योजनाओं का मकडज़ाल और मरता किसान

किसानों की फसल का बीमा किया जा रहा है। फसल खराब होने पर राहत और मुआवजा भी दिया जाता है। पीएम और सीएम किसान निधि भी दी जा रही है। तो सवाल यह उठता है कि इसके बाद भी किसान आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? इसके बाद भी किसान कर्ज में क्यों डूबते जा रहे हैं? सवाल ये भी है, क्या किसानों को अपने परिवार का स्तर बढ़ाने का, बच्चों को बेहतर शिक्षा दिलाने का अधिकार नहीं है? और भी…।

जवाब न तो सरकार के पास है और न ही समाज के पास। आंदोलन होते हैं। कुछ मांगें पूरी होने का दावा किया जाता है। कुछ रह जाती हैं। सत्ता में बैठे लोग किसानों की झोली भरने का दावा कर देते हैं। फिर भी वही ढाक के तीन पात। यानि खेती-किसानी में कर्ज के बोझ से लद जाओ। चुकाने की स्थिति न बने तो आत्महत्या कर लो।

मध्यप्रदेश की बात करें तो पिछले दिनों हुई जोरदार बारिश ने किसानों को रुला दिया है। इससे पहले तमाम इलाकों में सूखे के हालात बन गए थे। तो कई किसानों की फसलें सूख गईं, तो सैकड़ों की अति वर्षा का शिकार हो गईं। कुछ किसानों ने कर्ज के चलते अपना जीवन खत्म कर लिया। ताजा मामला खंडवा के गोराडिय़ा गांव का है, जहां कर्ज से दबे किसान ने फसल खराब होने के बाद जान दे दी। 20 सितंबर की रात यहां के पंढरी भील ने अपने ही खेत में लगे नीम के पेड़ पर फांसी लगाकर जान दे दी। पंढरी पर बैंक, दुकानदारों और गांव के कुछ लोगों का करीब चार साढ़े चार लाख रुपए का कर्ज था। बारिश से खराब हुई फसल के बाद उसकी बची खुची उम्मीद टूट गई थी।

खंडवा जिले के पंधाना के पास आदिवासी लीजेंड टंट्या मामा का गांव बड़दा है, जिन्हें राजनीतिक पार्टियों ने वोट के लालच में भगवान का दर्जा भी दे दिया है। लेकिन उनके गांवों के हालात सुधारने की सुध किसी को नहीं है। इस गांव से करीब दो किलोमीटर पहले गोराडिय़ा गांव है, जिसमें तीन हजार से अधिक लोग रहते हैं। टंट्या मामा की बिरादरी वाले 45 वर्षीय पंढरी भील इसी गांव में रहते थे। पंढरी की पिछले दो साल से लगातार फसल खराब हो रही थी। पैसा आ नहीं रहा था, कर्ज चुकता नहीं हो पा रहा था और तकादे बढ़ रहे थे। इस साल समय से बारिश नहीं होने से सोयाबीन की फसल खराब हो गई। सितंबर के तीसरे सप्ताह में हुई मूसलाधार बारिश से रही-सही फसल भी गल गई। उसके बाद उसकी हिम्मत जवाब दे गई। उन्होंने गांव के ही एक-दो लोगों से कुछ पैसा मांगा था, लेकिन गांव में अधिकांश बड़े किसानों की हालत भी उधार देने की नहीं थी, ऐसे में उनको नया कर्ज नहीं मिल पाया। नया कर्ज नहीं मिलने और पुराने कर्ज चुका पाने की उम्मीद खत्म होने से निराश पंढरी ने घर से करीब 500 मीटर दूर खेत में जान दे दी।

पंढरी भील पांच भाई थे। सब अलग रहते हैं। पंढरी की दो कमरों की मामूली सी गृहस्थी है। बाहर मवेशियों को बांधने की झोपड़ी है। मिट्टी की पुरानी दीवार गिरी हुई। कच्चा फर्श बरसात के बाद कीचड़ में बदल गया है। मवेशियों को बांधने की जगह अब भी कीचड़ से भरी हुई है। पंढरी के पास थोड़े पैसे होते तो एक ट्रॉली मुरुम डलवा लेता, लेकिन मामूली से खर्च के लिए भी कर्ज ही रास्ता बचा था। वह भी तब मिलता जब पिछला कर्ज चुकाता। दो-तीन बार से खेती में घाटा उठा रहे पंढरी की सारी उम्मीद सोयाबीन की फसल पर टिकी थी। उसके नाम उमरदा गांव में 1.22 हेक्टेयर जमीन है। इस साल उन्होंने गांव के एक बड़े किसान से ढाई बीघा जमीन किराए पर ली थी। पूरे खेत में सोयाबीन की फसल लगाई थी। फसल खराब हो गई, वह भी चल बसा। अब परिवार की समझ में नहीं आ रहा है कि घर कैसे चलेगा और बहनों की शादी कैसे होगी?

बड़े लडक़े के अनुसार पिता ने बैंक ऑफ इंडिया की रुस्तमपुर शाखा से कर्ज लिया था। अभी उसका एक लाख 91 हजार 936 रुपया बकाया है। मां ने स्व-सहायता समूहों के जरिए माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से भी कुछ रकम उठाई है। इसमें आशीर्वाद माइक्रो फाइनेंस कंपनी से 50 हजार रुपए का कर्ज भी शामिल है। कर्ज का अभी 29 हजार 544 रुपया बकाया है। जना स्माल फाइनेंस बैंक से 70 हजार रुपए का कर्ज लिया था, उसके अभी 52 हजार रुपए देने हैं। वहीं बंधन बैंक से 52 हजार रुपए का कर्ज लिया था, उसके 46 हजार रुपए देने हैं। पिता ने गांव के ही कुछ लोगों से करीब एक लाख रुपए उधार लिए थे। आभपुरी के कृषि सेवा केंद्र पर खाद-बीज, दवाई के 47 हजार रुपए बकाया है। कर्ज की यह रकम जुडक़र 4 लाख 66 हजार रुपए से अधिक हो चुकी थी। पंढरी के बेटे प्रदीप और ग्रामीणों ने 23 सितंबर को तहसील कार्यालय में शपथपत्र देकर फसल खराब होने और कर्ज की वजह से आत्महत्या की जानकारी दी। इसके बाद भी कोई स्थानीय अधिकारी यहां तक कि पटवारी भी परिवार और उनकी फसल का हाल जानने नहीं पहुंचे।

गोराडिय़ा गांव के किसान कहते हैं कि इस पूरे इलाके में हर किसान की यही कहानी है। एक हेक्टेयर में सोयाबीन की फसल की लागत करीब 75 हजार रुपए आती है। इसमें खेत की तैयारी से लेकर बीज, खाद, दवाई, कटाई और मंडाई शामिल है। सामान्य तौर पर एक हेक्टेयर में 19-20 क्विंटल का उत्पादन होता है। फसल बहुत अच्छी हुई तो औसतन पांच हजार रुपया प्रति क्विंटल की दर से बिक जाती है। कुल मिलाकर एक हेक्टेयर में किसान को करीब एक लाख रुपए मिलता है। 75 हजार की लागत निकाल दी जाए तो 25 हजार रुपए बच जाएंगे। 25 हजार के लिए सारी मेहनत और रिस्क है। अभी फसल की जो स्थिति है उसको देखकर लगता है कि एक हेक्टेयर खेत में मुश्किल से पांच क्विंटल सोयाबीन होगा। उसकी कीमत होगी 25 हजार रुपया। हम पहले ही 75 हजार लगा चुके तो कर्ज बढऩा ही है। फसल बीमा का प्रीमियम हमसे समय पर काट लिया जाता है, लेकिन यह योजना कभी हमारे काम नहीं आई। पिछली बार भी जब फसल बर्बाद हुई तो कोई बीमा नहीं मिला।

ये एक किसान की कहानी नहीं है। हर दूसरे सीमांत किसान की यही कहानी है। बड़े किसान थोड़ा बहुत ऐसे कर्जों से बच जाते हैं, लेकिन मध्यम और छोटे किसान तो कर्ज में ही जीवन यापन करते हैं। फिर कैसी योजनाएं? कैसा किसान हित? और कैसा बीमाओं का मकडज़ाल? इन सवालों के जवाब केवल और केवल इन मुद्दों से ध्यान हटाकर धर्म, जाति और अन्य मुद्दों में उलझाने तक सिमट कर रह गया है। गोल-गोल घूमते रहते हैं। फिर आत्महत्या के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता।

– संजय सक्सेना

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