Editorial
बच्चों का भविष्य क्यों बर्बाद किया जा रहा है?


एक तरफ शिक्षा के स्तर को लेकर तमाम दावे किए जाते हैं। करोड़ों का बजट दिखाया जाता है। कहीं माडल स्कूल तो कहीं सीएम राइज के नाम पर पैसा बहाया जाता है, लेकिन नतीजा सिफर नहीं, ऋणात्मक ही निकल रहा है। हाल ही में आए परिणाम बताते हैं कि मध्यप्रदेश में हाई स्कूल का रिजल्ट पिछले छह सालों में सबसे खराब रहा है। इस बार 42 प्रतिशत परीक्षार्थी फेल हुए हैं। फौरी तौर पर की गई समीक्षा में सामने आया है कि अधिकांश छात्रों का परिणाम गणित और अंग्रेजी में बिगड़ा है।
पहले तो बात करते हैं जो तात्कालिक कारण सामने आए हैं, उनकी। खराब परिणाम की एक बड़ी वजह छात्रों को बेस्ट ऑफ फाइव का विकल्प था, सो ज्यादातर छात्रों ने इन विषयों से दूरी बनाए रखी। इससे रिजल्ट पर असर पड़ा। 10वीं में 36 प्रतिशत छात्र यानी करीब 2.96 लाख परीक्षार्थी तो केवल गणित में ही फेल हुए हैं। यह पिछले साल से भी 10 प्रतिशत अधिक है। इसी तरह पिछले साल इंग्लिश में भी 3.12 लाख से ज्यादा परीक्षार्थी फेल हो गए। इसमें भी 38 प्रतिशत विद्यार्थी पास नहीं हो पाए।
खास बात यह है कि पिछले साल की तुलना में हिंदी और संस्कृत को छोडक़र सभी विषयों जिनमें विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, गणित और अंग्रेजी शामिल हैं, सभी के रिजल्ट में गिरावट आई है। औसतन 30 प्रतिशत छात्र हर विषय में फेल हुए हैं। इस बार 10वीं में 8.21 लाख छात्र-छात्राएं शामिल हुए थे। जिन्होंने कॉपी चेक की, उनका कहना है कि गणित में वैकल्पिक प्रश्नों ने उलझाया, अंग्रेजी में ग्रामर व अनसीन पैसेज को बच्चे समझ ही नहीं सके।
थोड़ा विस्तार में जाना जरूरी है। पता चला है कि गणित में 30 नंबर के ऑब्जेक्टिव पूछे गए थे। इनमें भी 17 नंबर के ऑब्जेक्टिव कठिन थे। इन्हें समझने में परीक्षार्थियों को परेशानी हुई और इसी में वे गलती कर बैठे। ज्यादातर विद्यार्थियों ने हल करने के लिए प्रश्नों का चयन गलत किया। लंबे मैथड वाले सवाल हल करने चाहे, जिसे ज्यादातर पूरा नहीं कर पाए। मोटे तौर पर यह तथ्य सामने आया कि छात्रों के कॉन्सेप्ट ही क्लियर नहीं हैं। अगर ऑब्जेक्टिव सरल होते तो संभव था कि रिजल्ट का प्रतिशत बढ़ जाता। अब सवाल यह उठता है कि जब बच्चे प्रश्न ही नहीं समझ पा रहे हैं तो उत्तर कैसे लिखेंगे। यानि कहीं न कहीं पढ़ाई में कमी रही होगी। और, जिस तरह की पढ़ाई हो रही है, उस हिसाब से पर्चा सैट नहीं किया गया।
अंग्रेजी की बात करें तो छात्रों ने एनसीईआरटी की किताबों से पढ़ाई की। पहले स्टेट की किताबें थीं। एनसीईआरटी का स्तर अपेक्षाकृत कठिन है। इसका उच्चारण भी कठिन बताया जाता है। इस बार पेपर में अनसीन पैसेज में हाई ऑर्डर थिंकिंग स्किल्स (एचओटीएस) पूछे गए थे। यानी इसमें विकल्प थे, जिसमें से छात्रों को सही उत्तर चुनना था। अधिकांश परीक्षार्थी इसे ठीक से समझ नहीं सके। पार्ट-डी जिसमें साहित्य का हिस्सा था, उसे बड़ी संख्या में छात्रों ने लिखा ही नहीं।
ये तो दोनों पर्चों की बात रही। अब आते हैं स्कूलों की हालत पर। लंबे समय से यह समस्या सामने आती रही है कि मिडिल-हाईस्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। गणित-अंग्रेजी जैसे विषयों में करीब 40 हजार शिक्षकों की कमी है। इनकी जगह अतिथि शिक्षक कार्यरत हैं। गणित में 10 हजार, अंग्रेजी में 7 हजार शिक्षक कम हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अन्य विषयों के शिक्षकों से ही मुख्य विषय पढ़ावाए जाते हैं। कई शिक्षक प्रभारी प्राचार्य बना दिए गए हैं। वे लिपिक जैसे काम भी कर रहे हैं। और तमाम प्राचार्य, लैक्चरर और शिक्षक राजधानी के साथ ही शहरों में अटैच होकर शिक्षण कार्य से दूर हैं। एक दर्जन से अधिक तो भोपाल में ओएसडी के पदों पर बैठ गए हैं।
देखा जाए तो प्रदेश के साथ ही पूरे देश में शिक्षा का यह संक्रमण काल चल रहा है। सत्ता में काबिज लोग पूरी शिक्षा प्रणाली को बदलना चाह रहे हैं। मध्यप्रदेश में दो दशक से एक ही विचारधारा की पार्टी की सरकार है, लेकिन बीस सालों में यही तय नहीं हो पाया कि करना क्या है? हम कहीं अंग्रेजी के खिलाफ बात करते हैं और एमबीबीएस जैसी डिग्री की शिक्षा हिंदी में चालू करके गर्व महसूस करते हैं, फिर कैसे हम दसवीं में बच्चों की अंग्रेजी अच्छी कर सकते हैं। ङ्क्षहदी हमारी राजभाषा है, यह सही है, लेकिन शिक्षा का मतलब केवल हिंदी तो नहीं होता है। कभी इतिहास को बदल रहे हैं तो कभी भूगोल को। अंग्रेजी-गणित पर जैसे उनका ध्यान ही नहीं है। शिक्षकों से चाकरी करवाते हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में उनकी वैसे भी कमी है।
इधर शासन और प्रशासन में बैठे लोगों की मिलीभगत से प्रदेश में शिक्षा माफिया फल-फूल रहा है। इस फैक्टर पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। शिक्षा माफिया के कारण सरकारी स्कूलों को जानबूझकर बंद करने की कगार पर पहुंचाया जा रहा है। पहले चर्चा हुई थी कि सीबीएसई और बोर्ड का समान पैटर्न किया जाएगा, लेकिन यह भी अधर में है। सरकार नए-नए प्रयोग करके कभी सीएम राइज स्कूल खोलती है तो कभी आदर्श विद्यालय। लेकिन शिक्षा का स्तर सुधारने पर ध्यान नहीं दिया जाता। स्तर नई बिल्डिंग या चमक-धमक दिखाने से नहीं सुधरता। इसके लिए जमीनी स्तर पर प्रयास करने होंगे। और एक विचारधारा को थोपने के बजाय शिक्षा के स्तर पर यदि गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया, तो बोर्ड को बंद ही करना पड़ेगा। वैसे भी बोर्ड के स्कूलों की संख्या लगातार कम हो रही है। सरकार स्कूलों को ठेके पर देने का विचार भी कर रही है।
कुछ भी करे, लेकिन बच्चों का भविष्य खराब करने का अधिकार किसी को नहीं है। फेल होने वाले बच्चों में कुछ तो आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं, सैकड़ों बच्चे डिप्रेशन में चले जाते हैं। कई पढ़ाई छोड़ कर घर बैठ जाते हैं। ये हालात ठीक नहीं हैं। अगर सरकार यही चाहती है कि सरकारी स्कूल बंद कर दिए जाएं तो बोर्ड को भंग करके सारे स्कूल सीबीएसई को सौंप दिए जाएं। कुछ समय भले ही लगेगा, कम से कम बच्चों का भविष्य को बच सकेगा। प्रदेश सरकार के बस का तो कुछ लगता नहीं।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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