अलीम बजमी
भोपाल की पहचान सिर्फ शैल-शिखर, ताल-तलैया, इमारतें या खान-पान तक नहीं हैं। असल में इस शहर की रूह उन जगहों में बसती है, जो इतिहास और वर्तमान के बीच पुल बनकर खड़ी हैं। पुलपुख्ता- नाम सुनते ही एक ठोस, पुराना और भरोसेमंद अहसास मन में उतरता है। आज जानिए, इसकी कहानी। यह भोपाल का हृदय है। पुलपुख्ता केवल एक पुल नहीं, बल्कि समय की गवाही देता एक सजीव स्मारक है। यह करीब 248 वर्षों से राजधानी के इतिहास, सत्ता परिवर्तनों, जनजीवन और जल संरचना का मूक साक्षी है। इसने राजशाही के शाही जुलूसों से लेकर आज के ट्रैफिक जाम तक सब देखा है।
इतिहास की कड़ी, समय का साक्षी
सुबह-शाम वाहनों की रेलमपेल से गुलजार रहने वाले इस पुल की कहानी 1777 में शुरू होती है। भोपाल के चौथे नवाब हयात मोहम्मद खां (कार्यकाल 1777-1807 )शिकार पर निकले थे, जब उनका हाथी दलदली इलाके में फंस गया और घायल हो गया। उन्होंने दीवान छोटे खां को दस नए हाथी खरीदने के लिए भेजा, लेकिन कीचड़ और कठिन रास्तों से जूझते हुए दीवान ने समझा कि इस रास्ते को पक्का करना ज़रूरी है। दीवान छोटे खां ने दूरदर्शिता दिखाते हुए नवाब हयात मोहम्मद खां से मिली धनराशि का उपयोग कर यहां एक पुल बनवा दिया।
बलुआ पत्थरों से बने इस कच्चे पुल को पहले ‘कच्चा पुल’ कहा गया। बाद में, नवाब शाहजहां बेगम (1868 से 1901) की बग्घी जब इसी पुल से गुजरी और जोरदार झटकों का सामना करना पड़ा, तो उन्होंने पुल को फौरन मजबूत करने का आदेश दिया। इसकी पुर्नसंरचना होने पर इसे ‘पुल पुख्ता’ कहा जाने लगा। यानी एक ऐसा पुल जो मजबूत है। इतिहास को संभाले हुए हैं। वक्त के साथ आधुनिकता में ढल गया हैं।
पुलपुख्ता ने रोक रखा है छोटे तालाब का पानी
पुलपुख्ता 1.29 वर्ग किलोमीटर में फैले छोटे तालाब पर निर्मित है। इसका जलग्रहण क्षेत्र 9.6 वर्ग किलोमीटर बताया जाता है। वर्तमान में इसकी अधिकतम गहराई करीब 10.7 मीटर है। छोटे तालाब में ताजा पानी आने का फिलहाल कोई मजबूत स्त्रोत नहीं है। बड़े-छोटे करीब 28 नालों का पानी इसमें आकर मिलता है। इसकी एक पहचान बड़े तालाब के आउटलेट के रूप में भी रही। लेकिन यह अब इतिहास है।
स्थापत्य का बेजोड़ नमूना
यह पुल जल प्रबंधन का भी मौन रक्षक है। जल अभियांत्रिकी की भी मिसाल है। यहां बनी 20 फीट लंबी एक वॉल (आउटलेट) जल निकासी की प्राकृतिक व्यवस्था सुनिश्चित करती है। जब जलस्तर बढ़ता है, तो वॉल से गुजरकर यह पानी झरने की शक्ल में यादगार-ए-शाहजहांनी पार्क की ओर गिरता है। यह एक मोहक जलप्रपात का दृश्य प्रस्तुत करता है। इस पानी का बहाव पातरा नाला बनाता है, जो आगे चलकर हलाली डेम तक पहुंचता है और रास्ते में कई किसानों के लिए सिंचाई का साधन बनता है। सोचिए, यह पुल इतिहास भी है, इंजीनियरिंग भी, और प्रकृति से रिश्ता भी।
कालचक्र में बदलता रूप
नवाबी दौर में यह एक सिंगल लेन पुल था, लेकिन जम्हूरियत के साथ इसकी चौड़ाई भी बढ़ती गई। आज यह एक फोर लेन पुल है, जो थाना तलैया से जहांगीराबाद को जोड़ता है और रोज़ाना हजारों वाहन इसके ऊपर से गुजरते हैं। यद्यपि इसका सौंदर्यीकरण पहली बार 1909 में हुआ, जब तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो अपनी पत्नी के साथ भोपाल आए थे। उनके स्वागत में पुल को सजाया गया और इसके नीचे 20 एकड़ में फैले यादगार-ए-शाहजहांनी पार्क को संवारा गया।
आज का पुलपुख्ता
1980 के दशक में इसके पहले बड़े चौड़ीकरण की शुरुआत हुई। 14 अगस्त 2006 को शहर में 12 इंच की रिकॉर्ड बारिश होने के बाद इसकी संरचना को फिर से सुदृढ़ किया गया। आज यह पुल सिर्फ एक व्यस्त मार्ग नहीं, बल्कि एक लोकप्रिय स्थल है, जहां से गुजरते हुए फोर लेन रोड से लोग भोपाल की विरासत, हरियाली और शांत जलदृश्य का आनंद लेते हैं। यह वह विरासत है जो शाही शानों-शौकत, प्रशासनिक बदलाव, तकनीकी चतुराई और जनसरोकारों को जोड़ती है। यह बताता है कि समय चाहे जितना बदल जाए, कुछ चीजें हमेशा इतिहास और वर्तमान के बीच पुल बनाकर खड़ी रहती हैं। भोपाल की आत्मा इस पुल में धड़कती है। यह न तो सिर्फ ‘स्मारक’ है और न ही सिर्फ ‘इन्फ्रास्ट्रक्चर’। यह दोनों के बीच की वह रेखा है, जो इतिहास को वर्तमान से जोड़ती है—बिना शोर के, बड़ी खूबसूरती से।
Bhopal का पुलपुख्ता: भोपाल की रगों में बहता
इतिहास और सभ्यता का पुल
