Openion ….हम आगे जा रहे हैं…?

भारत विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। हम ट्रिलियन इकानामी की ओर बढ़ रहे हैं। और भी बहुत कुछ…। दूसरी तरफ इस रिपोर्ट पर भी नजर डालें, सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की आय का 22.6 प्रतिशत हिस्सा है। यह पिछले सौ वर्षों में धन का सबसे अधिक केंद्रीकरण है। पिछली बार ब्रिटिश राज में ही हम इसके करीब पहुंचे थे। वित्त-वर्ष 2023-24 में- जीडीपी के मानक पर- भारत की कुल आय 7.6 प्रतिशत बढ़ी थी। लेकिन यह 2003 से 2011 तक के भारत के प्रदर्शन से कम है। वर्ष 2008 को छोडक़र- जब पूरी दुनिया महामंदी की चपेट में थी- भारत ने लगातार हर साल लगभग 8 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की थी। फिर भी, 7.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी सराहनीय है।

आज की सुर्खियों को देखकर और शेयर बाजार की आसमानी उड़ान पर यदि हम खुश हो रहे हैं तो जमीनी आंकड़ों का विश्लेषण कर लें, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सुपर-रिच व्यक्तियों के एक छोटे-से हिस्से को छोडक़र- अधिकांश भारतीयों को मुश्किल से ही कोई आर्थिक वृद्धि दिख रही है। इसके अलावा, भारत की कहानी- जिसका कि 1990 के दशक के मध्य से ही उत्सव मनाया जा रहा था- उसकी नींव असमानता की वजह से कमजोर हो रही है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त डेटा इसे स्पष्ट करते हैं।

एक संदर्भ पर नजर डालते हैं। पिछले साल प्रकाशित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट के एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। 2022 में तो इन्होंने शिखर छू लिया, जब कर्ज और गरीबी के बोझ से दबे 11,290 किसानों ने आत्महत्या की। अकेले 2014 से 2022 तक 1 लाख से अधिक किसान अपनी जान दे चुके हैं।

एक और सेगमेंट- जिससे अर्थव्यवस्था की बदहाली का अंदाजा लगता है- युवाओं की बेरोजगारी है। यह 1994 से लगातार बढ़ रही है। 1994 में युवाओं की बेरोजगारी 11.8 प्रतिशत थी। 2018 में यह आंकड़ा चौंकाने वाले चरम पर पहुंच गया, जब भारत के 25.9 प्रतिशत युवा नौकरी की तलाश कर रहे थे और उन्हें काम नहीं मिल पा रहा था। तब से इसमें थोड़ी कमी आई है, लेकिन फिर भी भारत की युवा बेरोजगारी दुनिया में सबसे ज्यादा में से एक है। यहां के हालात की तुलना मध्य-पूर्व के देशों से की जा सकती है, जो अकसर युद्ध स्थिति से जूझते रहते हैं। विशेषकर शिक्षित युवाओं के लिए स्थितियां बहुत खराब हैं। 2022 में स्नातकों के बीच युवा बेरोजगारी 29.1 प्रतिशत थी। स्वतंत्र भारत में यह सर्वाधिक है!

एक और चिंताजनक आंकड़ा- जिस पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है वह है ‘निवेश दर’ है। यानी देश की आय का वह हिस्सा, जिसका कारखानों, सडक़ों, मशीनों और मानव-पूंजी में निवेश किया जाता है। हम इस लंबी सूची में से कुछ वस्तुओं के बारे में सुर्खियां देखते हैं, जैसे कि बंदरगाह और हवाई अड्डे, जिनमें भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन जब आप सभी प्रकार के निवेशों का जायजा लेते हैं तो एक अलग ही कहानी उभरकर सामने आती है। परंतु सच यह है कि हम इस क्षेत्र में भी बहुत अच्छा नहीं कर रहे हैं। अर्थ विशेषज्ञों की राय में उच्च निवेश दर दीर्घकालिक विकास का महत्वपूर्ण चालक है। भारत की निवेश दर 2006 में 38 प्रतिशत के आंकड़े को पार कर गई थी और 2013 तक इससे नीचे नहीं गिरी।

संदर्भ बताते हैं कि उस दौरान भारत का निवेश दुनिया की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के बराबर था। लेकिन तब से इसमें लगातार गिरावट आ रही है, और जैसा कि सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है, 2022-23 तक इसका आंकड़ा गिरकर 27.9 प्रतिशत हो गया था। शायद न तो इससे जनता को कोई सरोकार है और न ही सरकार चाहती है कि वह इस पर नजर भी दौड़ाए। इतनी सारी एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न चीजें गलत क्यों हो रही हैं? जब हम 18 मार्च को प्रकाशित विश्व विषमता लैब की रिपोर्ट पढ़ते हैं तो इसे समझना आसान हो जाता है। इससे पता चलता है कि भारत में असमानता- जो कई दशकों से अधिक रही है- अब नए शिखर पर पहुंच रही है।

 ‘टाइम’ (27 मार्च) में बताया गया है, भारत में विषमता का स्तर अमेरिका, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका से भी अधिक है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमारा ध्यान सुर्खियों और पोस्टरों पर ज्यादा केंद्रित हो गया है। हमारा पूरा जोर आज इस पर है कि हम 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी कैसे बनें और कुल राष्ट्रीय आय के मामले में जर्मनी से कैसे आगे निकलें। लेकिन हम शायद ही कभी इस बारे में बात करते हैं कि कुल राशि का लोगों में कैसे वितरण हो पा रहा है और गरीब किस स्थिति में रह रहे हैं।

आज जब युवाओं के लिए नौकरियां खत्म हो रही हैं और किसानों को गरीबी का सामना करना पड़ रहा है तो नया आदर्श वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है -‘जब भी आर्थिक स्थिति के बारे में उदास महसूस करें और गरीबी को लेकर चिंतित हों, तो सबसे अमीर आदमी का चेहरा याद करें, और गर्व महसूस करें!’ क्या यह आदर्श वाक्य हमें वास्तविक खुशहाली की ओर ले जाएगा? क्या हम असमान वितरण के चलते फिर से अमीर-गरीब के बीच चलने वाले संघर्ष की ओर तो नहीं जा रहे हैं?

सत्ताधीशों को इससे शायद कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम आदमी…? हमारे देश का आम आदमी तो इतना भोला है कि वह प्रचार की चकाचौंध में ही खुश हो लेता है। उसे अपनी गरीबी नहीं दिखती। उसे अपने घर के युवाओं की बेरोजगारी नहीं दिखती। उसे अपने आसपास के किसानों की आत्महत्याएं नहीं दिखतीं। आज जब हम चुनाव की दहलीज को पार कर रहे हैं, अभी तक मुद्दों की ओर हमारा रुख नहीं हो पा रहा है। सोशल मीडिया और रैलियों-भाषणों की गूंज के साथ ही आम आदमी को भ्रमित करने वाला खतरनाक नेटवर्क। बस, यही हमारी जिंदगी बन चुका है। असली मुद्दों से दूर होकर जिस मोड़ पर पहुंच रहे हैं, वहां शोषण और बेचारगी के अलावा कुछ भी नहीं है।

– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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