संपादकीय …. महाराष्ट्र की राजनीति और चुनाव

बिहार में भले ही सत्ता पर काबिज नीतिश कुमार ने एक बार फिर पलटी मार ली हो और वे एनडीए के साथ चुनाव मैदान में उतर गए, लेकिन वहां फिर भी राजनीतिक अनुमान और अटकलें लगाना बहुत कठिन नहीं हो रहा है। जबकि महाराष्ट्र में जैसे हर दिन कुछ नया डेवलपमेंट होता है। जिन कुछेक राज्यों में आगामी लोकसभा चुनाव के समीकरण सबसे ज्यादा जटिल माने जा रहे हैं, उनमें महाराष्ट्र का नाम सबसे ऊपर लिया जा रहा है।

जटिलता का ताजा उदाहरण मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम का पार्टी से अलगाव सार्वजनिक होने के बाद पूर्वघोषणा के बावजूद यह न बता पाना कि वह किस पार्टी में शामिल होने जा रहे हैं। गुरुवार को वह इसकी घोषणा करने वाले थे, लेकिन यह कहते हुए दो-तीन दिनों का और वक्त ले लिया कि अब उसकी कोई जल्दी नहीं है। अनिश्चितता के पीछे सबसे बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि अभी महायुति यानी भाजपा और उसके अन्य सहयोगी दलों में भी सीटों के बंटवारे पर पूरी सहमति नहीं बन पाई है। इससे कई सीटों पर यह निश्चित नहीं हो पा रहा कि वह आखिरकार किस दल के हिस्से में जाएगी और हृष्ठ्र प्रत्याशी को किस निशान पर चुनाव लडऩा होगा।

देश में इस बार का चुनाव इस मायने में खास है कि प्रदेश के दो प्रमुख दल शिवसेना और एनसीपी दोफाड़ होकर आमने-सामने हैं। ऐसे में सीटों को लेकर पारंपरिक दावे पुराने रूप में नहीं रह गए हैं। दोनों खेमों में हर सीट पर न केवल दलों के बीच दावेदारी बढ़ी हुई है बल्कि संभावित प्रत्याशियों की संख्या भी ज्यादा हो गई है। इसका नतीजा यह हुआ है कि यह रस्साकशी नेताओं के पार्टी छोडऩे का कारण तो बन ही रही है, कई सीटों पर बहुत विचित्र स्थिति पैदा हो गई है।

एक उदाहरण देखते हैं। विदर्भ की बुलढाणा सीट को लिया जा सकता है, जो महायुति में शिंदे सेना को दी गई, लेकिन उस पर भाजपा की भी दावेदारी थी। पार्टी के झुकने के बावजूद स्थानीय भाजपा नेता ने वहां से पर्चा भर दिया। दिलचस्प है कि उस नेता ने दो पर्चे भरे हैं एक भाजपा नेता के रूप में और दूसरा निर्दलीय के तौर पर। यह स्थिति आगे क्या रूप लेती है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना स्पष्ट है कि चुनावी समीकरणों के अंतर्विरोध को साधना विभिन्न पार्टियों के नेतृत्व के लिए आसान साबित नहीं होरहा और न होगा।

राजनीतिक अंतर्विरोध इस बार पार्टियों पर खास परिवारों के दबदबे की ही नहीं, एक परिवार के अंदर विरासत पर अलग-अलग दावेदारी के रूप में भी सामने आ रहा है। यह सबसे स्पष्ट रूप में बारामती सीट पर दिख रहा है, जो पिछले करीब छह दशकों से शरद पवार का गढ़ रही है और उनकी पारंपरिक सीट के तौर पर इसकी पहचान बन गई है। शरद पवार की विरासत उनकी बेटी सम्हाल रही हैं। इस बार यहां इसी परिवार के दो अहम सदस्य बेटी सुप्रिया सुले और बहू सुनेत्रा पवार- आमने सामने हैं। जहां सुप्रिया पिता शरद पवार की ओर से लड़ रही हैं, वहीं सुनेत्रा अपने पति अजित पवार के नाम पर वोट मांग रही हैं।

दो एनसीपी और दो शिवसेना के मुकाबलों के बीच यहां भाजपा और कांग्रेस की भूमिका भी मतदाताओं को ही तय करना है। मुकाबले दिलचस्प होते जा रहे हैं। कहीं कांग्रेस छोडक़र नेता भाजपा में जा रहे हैं तो महाराष्ट्र में भाजपा छोडक़र एक सांसद शिवसेना उद्धव के साथ भी गए हैं। इधर भाजपा में नितिन गडकरी का भविष्य भी महाराष्ट्र से ही जुड़ा है। भाजपा की राजनीति में उन्हें धीरे से हाशिए पर भेजने की प्रक्रिया जारी है तो संघ में भी उनका पहले जैसा समर्थन नहीं बचा है।

फिलहाल राजनीति के जानकार तो यही कह रहे हैं कि कम से कम महाराष्ट्र में यह चुनाव केंद्र की अगली सरकार तय करने में भूमिका तो निभा ही सकता है, प्रदेश राजनीति के स्वरूप और उसकी राजनीतिक संस्कृति को भी नए ढंग से परिभाषित कर सकता है। देखना यह होगा कि जो उत्तर प्रदेश आम चुनाव में किसी भी पार्टी के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, उसकी इस बार क्या भूमिका रहती है? और महाराष्ट्र-बिहार जैसे राज्य चुनाव को किस दिशा में ले जाते हैं? चुनाव उत्तर बनाम दक्षिण होगा या नहीं, यह भी देखना है।

– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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