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Openion: संपादकीय…ऊपर से नीचे तक सिस्टम बनाना होता है..!

जो राजनीतिक कायक्रम होते हैं, उसकी व्यवस्था कहां के पैसों से होती है? ऊपर से नीचे तक सिस्टम बनाना पड़ता है। राजनीतिक कार्यक्रमों में पैसे लगते हैं, इसलिए रुपए देना जरूरी है। इसके लिए पैसे तो हम लोगों को ही ऊपर भेजने पड़ते हैं। इस कारण हमने एक सिस्टम बना दिया है कि हर महीने आप पैसे देते जाओ, ताकि आप पर वजन न आए। मुख्यमंत्री आ रहे हैं, इनके कायक्रम के लिए पैसा लगता है। एक ठेकेदार के अनुसार ये उस महिला अफसर की बातचीत का अंश है, जिसे रिश्वत लेते गिरफ्तार कर लिया गया है।

भले ही लोकायुक्त पुलिस ने एक अफसर को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन कड़वा सच यही है कि जहां झांको वहीं पर झोल है। हर विभाग की यही कहानी सामने आती है। पहले तो बात करते हैं, विगत दिवस एक अफसर को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़े जाने की घटना की। उमरिया की जिला आबकारी अधिकारी रिनी गुप्ता को लोकायुक्त पुलिस ने 1.20 लाख रुपए की रिश्वत लेते मंगलवार को गिरफ्तार किया। अफसर की यहां पहली पोस्टिंग थी। बताया जा रहा है कि इस अधिकारी ने रिश्वत लेने का ऐसा सिस्टम बनाया था कि शराब ठेकेदार तंग आ गए थे। अफसर को रिश्वत लेते हुए पकडऩा इतना आसान नहीं था। उन्होंने ट्रैप से बचने के पूरे बंदोबस्त कर रखे थे। मोबाइल फोन या किसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के साथ अपने चैंबर में किसी को एंट्री नहीं देती थी। यहां 9 शराब ठेकेदार काम करते हैं। मैडम हर ठेकेदार से 80 हजार रुपए महीने लेती थी।

आबकारी अधिकारी दो लेवल पर रिश्वत लेती थीं। पहली वीआईपी और दूसरी पर्सनल। वीआईपी से आशय ऊपर के अफसरों तक पहुंचाने वाली रकम और पर्सनल यानी खुद के हिस्से की रकम। इसके भी रेट तय थे। एक शराब दुकान से 30 हजार रुपए महीने का टारगेट वीआईपी का था। अफसर अपने हिस्से के 50 हजार रुपए लेती थीं। अफसर को दी गई तारीख पर रिश्वत की रकम पहुंचाना जरूरी होता था। जिसने इसमें आनकानी या देरी की उनके खिलाफ लीगल एक्शन ले लेती थीं।

शराब ठेकेदारों से पूरी बातचीत ये अफसर वाट्सएप कॉल पर ही करती थीं, ताकि रिकार्डिंग न हो सके। शराब ठेकेदारों को उन्होंने साफ कह रखा था कि सिस्टम में रहो तो सब कुछ ठीक चलता रहेगा। किसी ने सिस्टम ब्रेक करने की कोशिश की तो उसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। 29 अगस्त को मैडम अपने दफ्तर में रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार की गईं, उस दिन रिश्वत देने पहुंचे शराब ठेकेदार से भी मैडम ने फोन अपने ड्राइवर के पास बाहर रखवाया था। अफसर का कहना होता था- लाइसेंस फीस दे दी है। तो उन्होंने कहा कि लाइसेंस फीस तो सीधे सरकार को जाती है, उसमें मुझे कुछ नहीं मिलता। लाइसेंस फीस से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। उमरिया में 9 ग्रुप काम करते हैं। एक ग्रुप से ये अफसर 80 हजार रुपए महीने लेती हैं। बीच-बीच में मैडम को 70 हजार रुपए महीना भी देना पड़ता है। कई बार वो सिस्टम के नाम पर या ऊपर पैसे भेजने के नाम पर अतिरिक्त पैसे भी मांगती थीं। कुल मिलाकर 9 दुकानों से 80 हजार के हिसाब से 7.20 लाख रुपए सिर्फ रिश्वत के तौर पर लिए जाते थे। इस हिसाब से एक साल में शराब ठेकेदारों से तय रेट के हिसाब से 86.40 लाख रुपए की वसूली होती थी।

पहला मुद्दा तो यही है कि यदि आबकारी विभाग में यह सिस्टम चलता है, तो पूरे प्रदेश में चलता होगा। यानि बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता। वैसे आबकारी विभाग की एक खासियत यह है कि इस रिश्वत के बदले कई और काम ठेकेदारों के हो जाते हैं। आखिर ठेकेदार अचानक करोड़पति कैसे हो जाते हैं? सबसे पहले तो गोदामों से निकलने वाले माल में हेराफेरी होती है। एक चालान पर दो-दो वाहन भी निकाल दिए जाते हैं। ये अतिरिक्त होता है। और फिर, जो रिश्वत दी जाती है, उसके बदले अवैध शराब का नेटवर्क भी फैला लिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में कई ठेकेदारों का माल सीधे पहुंचता है। ये वही माल होता है, जो गोदामों से बिना एंट्री के निकाला जाता है। ठेकेदार इसकी बात नहीं करते। यही कारण है कि अवैध शराब का कारोबार लगातार फलता-फूलता रहता है। दिखाने के लिए विभाग वाले महीने में एकाध बार कार्रवाई कर देते हैं। किसी छोटे गुर्गे को या कुछ ग्राहकों को पकडक़र दिखा दिया जाता है कि विभागीय अफसर सजग हैं। यही नहीं, कई बार महीने या हफ्ते की राशि बढ़वाने के लिए भी कार्रवाई होती है।

लूप होल हर जगह हैं। रिश्वत भी हर जगह चलती है। बस जिससे सौदा नहीं पटता, आम तौर पर वहीं पर रिश्वत लेते पकड़वा दिए जाते हैं। सरकारी विभागों में यह बहुत सामान्य बात है। और एक सच राजनीति का भी यही है कि जितने भी सरकारी कार्यक्रम होते हैं, अधिकारियों की केवल भौतिक ड्यूटी नहीं लगती, उन्हें व्यवस्थाएं भी करनी होती हैं। राजधानी से लेकर दूर दराज के अंचलों तक यही होता है। अधिकारी विभिन्न विभागों के ठेकेदारों को निर्देशित कर देते हैं, बस संचालकों से बसें ले ली जाती हैं। कई बार तो ये होता है कि कार्यक्रम में आने वाले खर्च से ज्यादा चंदा वसूली हो जाती है। ये राशि बांट ली जाती है। जैसे घर-घर की कहानी होती है। वैसे ही दफ्तर-दफ्तर की कहानी है। बयां करने बैठे तो कहानी, नहीं पूरा धारावाहिक बन जाता है। पकड़ा वो जाता है, जिसके गृह-नक्षत्र खराब होते हैं। जिससे सौदा नहीं पट पाता। ऐसा लगने लगता है कि अब कुछ ज्यादा ही हो रहा है।

– संजय सक्सेना

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