स्मृति शेष: सुरेश तांतेड़ – फ़न और फ़ज़ीलत
की वो मिसाल जो अब सिर्फ़ यादों में हैं

जन्म 25 दिसम्बर 1944
मृत्यु 10 जून 2025
अलीम बजमी. भोपाल।
भोपाल। शहर के सांस्कृतिक आसमान पर दशकों तक रोशनी बिखेरने वाले  सुरेश तांतेड़ जी (81) अब इस फ़ानी दुनिया में नहीं रहे। मंगलवार दोपहर 3 बजे, पांच दिन की लंबी बीमारी के बाद उन्होंने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया। उनका जाना केवल एक शख्सियत का जाना नहीं है, बल्कि एक युग का अवसान है। उनकी अन्त्येष्टि बुधवार को होगी।
जब भोपाल में शास्त्रीय संगीत की ज़मीन बंजर थी, तब तांतेड़जी ने सुरों की क्यारियां लगाईं। वह दौर जब लोग ‘संगीत’ का मतलब महज़ कव्वाली समझते थे, तब उन्होंने लय, ताल और राग-रागनियों से इस शहर को रुबरु कराया। उनकी मेहनत और जुनून ने शास्त्रीय संगीत को आमजन तक पहुंचाया। इसे केवल महफिलों का हिस्सा नहीं, बल्कि एक जनांदोलन बना दिया।
फ़न के रहबर, फ़नकारों के रहनुमा
तांतेड़जी एक ऐसे शख्स थे, जिनकी मुरादें सदा फ़न और फ़नकारों के इर्द-गिर्द धड़कती रहीं। ‘मधुवन’ और ‘अभिनव कला परिषद’ जैसी संस्थाएं सिर्फ़ उनके संगठनों के नाम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की धड़कन थीं। पिछले छह दशकों में उन्होंने 450 से अधिक शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम किए और 4000 से ज़्यादा नवोदित कलाकारों को मंच दिया।
जीवन में फन, फन में आध्यात्म
वे सिर्फ़ एक आयोजक नहीं, बल्कि स्वयं एक बेहतरीन तबला वादक भी थे। ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी, टप्पा, चतुरंग या तराना। हर रूप की गहराई से समझ उन्हें एक रसिक और अध्यात्मिक साधक बनाती थी। उनका संगीतप्रेम केवल कला के लिए नहीं, आत्मा की तृप्ति के लिए था।
गुरु-शिष्य परंपरा के संवाहक
1970 में उन्होंने ‘मधुवन’ की स्थापना कर गुरु-शिष्य परंपरा को पुनर्प्रतिष्ठित किया। हर वर्ष गुरु पूर्णिमा पर विभिन्न कला क्षेत्रों के सात विशिष्ट आचार्यों को ‘श्रेष्ठ कला आचार्य’ की उपाधि से सम्मानित करने की परंपरा आरंभ की। यह केवल एक कार्यक्रम नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति के मूल भाव का उत्सव था।
आख़िरी सांस तक सरोकार
कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जूझते हुए भी उन्होंने कभी अपने मिशन को पीछे नहीं छोड़ा। उनका हौसला इतना बुलंद था कि 14 जून को भोपाल में एक सम्मान समारोह और 12 जुलाई को ‘गुरुवंदना महोत्सव’ आयोजित करने की योजना पर वे आख़िरी समय तक काम कर रहे थे।
त्याग की इंतिहा
कभी जब कलाकारों को मानदेय देने के लिए धन की कमी हुई, तो उन्होंने अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रख दिए, ये जज़्बा विरले ही देखने को मिलता है। उनके लिए संस्कृति केवल आयोजन नहीं, इबादत थी।
विरासत जो हमेशा ज़िंदा रहेगी
1962 में उज्जैन से भोपाल आकर उन्होंने इस शहर को अपनी कर्मभूमि बनाया। शुजालपुर में जन्मे तांतेडजी ने न सिर्फ़ भोपाल की सांस्कृतिक रिक्तता को भरा, बल्कि उसे राष्ट्रीय मानचित्र पर प्रतिष्ठित स्थान दिलाया। उनके अथक प्रयासों के लिए उनकी संस्था को ‘राजा मानसिंह तोमर सम्मान’ से नवाज़ा गया।
तांतेडजी का जीवन सादगी, संघर्ष और समर्पण की मिसाल रहा। चाहे सामाजिक सरोकार हो या आमजन की सेवा। उन्होंने हर भूमिका में अपनी ईमानदारी और निष्ठा से एक अलग पहचान बनाई। उनके शब्दों में आत्मीयता होती थी और उनके कार्यों में संवेदनशीलता। वे एक सच्चे मार्गदर्शक, मित्र और प्रेरणास्त्रोत थे। उन्होंने अपने आसपास के लोगों को जो स्नेह, सहयोग और समझदारी दी, वह आज अमूल्य धरोहर बन गई है। मैं सौभाग्यशाली हूं कि उनका सान्निध्य मिला। वे अपने पीछे पत्नी, एक पुत्र, एक पुत्री तथा भाईयों व नाती पोतों से भरा पूरा परिवार छोड़ गए हैं।
तांतेडजी का जाना सिर्फ मेरी व्यक्तिगत क्षति ही नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी अपूरणीय है। मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें और उनके परिवार को इस दुःख की घड़ी में धैर्य और संबल दें।
मैं समझता हूं कि उनकी आवाज़ भले ही खामोश हो गई हो, मगर उनकी धड़कनें अब भी हर राग, हर ताल और हर महफ़िल में सुनाई देगी।
10 जून 2025

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