भारत सरकार द्वारा दो वर्ष पूर्व वर्ष 2023 में संसद में एक अधिनियम पारित किया गया था।जिसे *डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटक्शन एक्ट* (डीपी डीपी ) के नाम से जाना जाता है। इसके तहत सरकार ने नागरिकों की व्यक्तिगत जानकारी एवं गोपनीयता के डाटा को संरक्षण देने का दावा किया है। वर्ष 2025 में सरकार ने इस अधिनियम के परिपालन में नियम बनाए हैं। आलोचकों का आरोप है कि ये नियम नागरिकों द्वारा सरकार से सूचना प्राप्त करने के अधिकार को समाप्त करते हैं। यही नहीं इस कानून से समूचा मीडिया तंत्र विशेष तौर पर छोटे एवं क्षेत्रीय समाचार पत्र बुरी तरह से प्रभावित होंगे। नियमों के अनुसार इस एक्ट के उल्लंघन पर 250 करोड़ रुपए से 500 करोड़ रुपए तक का के दंड का प्रावधान रखा गया है।
*क्या है डीपी डीपी*
माना गया है की डाटा आधुनिक युग का आधार है, जो व्यक्ति को ही नहीं सरकार और समाज को सशक्त बनाता है। डाटा जानकारी का वह संग्रह है जो तथ्यों आंकड़ों और विवरण के रूप में होता है। यह व्यक्ति, सरकार, संस्थाओं, उत्पादक इकाइयों को नीतियां बनाने में मददगार होता है। इसीलिए इसे महत्वपूर्ण माना गया है। डाटा का दुरुपयोग व्यक्तिगत, सामाजिक, सार्वजनिक जीवन,राष्ट्रीय हितों को प्रभावित करता है। सरकार के अनुसार इसके बुरे प्रभाव से नागरिकों को बचाने उसकी गोपनीयता की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए ही डीपी डीपी अधिनियम लाया गया है।
इस अधिनियम को 11 अगस्त 2023 में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली थी। इसका मसौदा और नियम जनवरी 2025 में सार्वजनिक कर सरकार द्वारा नागरिकों से सुझाव मांगे गए थे। इन सुझावों की समय सीमा 18 फरवरी 2025 निर्धारित की गई थी। कई नागरिक अधिकार संगठनों ने इस अधिनियम पर अपनी आपत्तियों से सरकार को अवगत करवाया है। उन आपत्तियों पर सरकार की प्रतिक्रिया की जानकारी तो सामने नहीं आई है। लेकिन मीडिया सहित नागरिकों में भय बना हुआ है।
अधिनियम का प्रभाव
इस अधिनियम ने सरकार को नियंत्रण के व्यापक अधिकार दिए हैं। वह अब व्यक्ति की गोपनीयता और निजता की सुरक्षा के नाम पर किसी भी तरह की जानकारी देने से इनकार कर सकेगी। इस अधिनियम ने 2005 में देश वासियों को मिले सूचना के अधिकार को अप्रासंगिक बना दिया है। बीते 20 वर्षों में सचेत नागरिकों द्वारा सरकार से मांगी गई अनेक अधिकृत सूचनाओं से कई घोटालों का पर्दाफाश हुआ है। कई अपराधी दंडित हुए हैं। एक जानकारी के अनुसार सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत प्रतिवर्ष 60 लाख आवेदन दिए जाते थे। अब डीपी डीपी अधिनियम लागू होने पर सरकार किसी भी जानकारी को निजी बताकर वह जानकारी देने से इनकार करेगी। हालांकि सूचना के अधिकार अधिनियम में पूर्व से ही यह प्रावधान है कि आवेदक सरकार से वही जानकारी प्राप्त कर सकता है जिससे किसी का व्यक्तिगत जीवन प्रभावित न होता हो।
*नाम छापने के लिए अनुमति मांगो*
इस अधिनियम का सबसे विवादास्पद एक प्रावधान है जिससे पत्रकारिता संकट में आ गई है। अधिनियम के तहत पत्रकार अपने समाचार, आलेख, विश्लेषण अथवा किसी भी घटनाक्रम, भ्रष्टाचार आदि की प्रमाणिक जानकारी होने के बाद भी आरोपी का नाम प्रकाशित नहीं कर सकते। नाम तब तक प्रकाशित नहीं किया जा सकता जब तक घटनाक्रम में शामिल व्यक्ति स्वयं स्वीकृति न दे ।
अर्थात किसी सरकारी कर्मचारी द्वारा रिश्वत लेने के दौरान लोकायुक्त पुलिस अथवा अन्य किसी एजेंसी द्वारा गिरफ्तार किया जाता है, तो आरोपी का नाम तब तक प्रकाशित अथवा प्रसारित नहीं किया जा सकेगा जब तक की स्वयं रिश्वत लेने वाला आरोपी इसकी अनुमति न दे।
अब तक पत्रकारों द्वारा प्राप्त जानकारी के स्रोत को वैधानिक सुरक्षा मिली हुई थी। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई बार अपने फैसलों में इस बात का उल्लेख किया है कि पत्रकारों से समाचार के स्त्रोत की जानकारी नहीं मांगी जा सकती, जो समाचार का आधार होती है। समाचार पत्र भी सूत्रों से मिली जानकारी बता कर समाचार प्रकाशित करते हैं। नए अधिनियम में यह छूट भी वापस ले ली गई है। बिना व्यक्ति की अनुमति से किसी का भी नाम प्रकाशित अथवा प्रसारित करने पर 250 करोड़ रुपए के दंड का प्रावधान रखा गया है।
*डराने का प्रयास*
250 करोड़ रुपए के भारी-भरकम जुर्माने का प्रावधान आम नागरिकों और मीडिया को डराने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। कारपोरेट मीडिया, संपन्न समाचार पत्र तो ऐसे प्रकरणों में सरकार से दो- दो हाथ कर सकते हैं। लेकिन स्थानीय एवं क्षेत्रीय समाचार पत्र इतना जुर्माना अदा करने की हैसियत ही नहीं रखते हैं। ऐसे अखबार जो पत्रकारिता के मानदंडों से समझौता करने को तैयार नहीं होंगे वे समाचार पत्रों के बाजार से बाहर होने में ही अपनी भलाई समझेंगे।
सरकार ने इस अधिनियम के माध्यम से खोजी पत्रकारिता की धार को भी कुंद कर दिया है। लोग पूछ रहे हैं कि किसी का भी नाम प्रकाशित न करना पाठकों और नागरिकों के जानने के अधिकार का हनन नहीं है ?
इस अधिनियम का एक मकसद यह भी माना गया है कि लोग सरकार से किसी भी तरह की जानकारी न मांगे, न ही कोई सवाल ही पूछे। फिर भी अगर कोई पूछने का दुस्साहस भी करे तो उसे निजी जानकारी कहकर टरकाया जा सके। छोटे समाचार पत्र ने अगर गलती से भी किसी आरोपी अथवा अपराधी का नाम बिना उसकी अनुमति के छाप दिया और इसकी शिकायत सरकार से की गई, तो उस अखबार के मालिक को ही नहीं उसकी आने वाली पुश्तों को भी जुर्माना अदा करने में पीढ़ियां खप जाएगी।
हरनाम सिंह
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