बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत को ज्ञान और शिक्षा का वैश्विक केंद्र बनाने का संकल्प लेते हैं, तो दूसरी तरफ डॉक्टरी की नीट परीक्षा और यूजीसी-नेट परीक्षा के बहुचर्चित और बहुविवादित घोटाले हमारी शिक्षा प्रणाली और ऐसे संकल्पों पर प्रश्न चिन्ह लगाते दिख रहे हैं। इस बीच केंद्रीय मंत्रिमंडल की एक सदस्य द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे चार आसान शब्द भी ठीक से न लिख पाने की खबरें सुर्खियां बन गईं।
किसी विभाग को या परीक्षा कराने वाली संस्था को क्लीन चिट देने भर से काम चलने वाला नहीं है। यहां मुद्दा उन करोड़ों युवाओं का है, जो इस देश का ही नहीं, आने वाले समय के भी कर्णधार बनेंगे। कुछ भी सफाई दी जाए, लेकिन आज की तारीख में हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली के स्तर पर एक बड़ा सवालिया निशान तो लगा ही हुआ है। इस विरोधाभास के चलते हमारे मुखिया के संकल्प और जमीनी हकीकत पर चर्चा आवश्यक हो गई है।
सबसे पहले तो प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की बात करना जरूरी हो गया है। हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा से लेकर ऊपर तक सरकारी शिक्षा व्यवस्था लगभग फेल है और कहीं न कहीं इस पर शिक्षा माफिया हावी हो रहा है। इसके बाद उच्च शिक्षा की बारी आती है। सरकारी स्तर पर विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों का दौर जैसे खत्म हो गया है। शिक्षा का पूरी तरह व्यवसायीकरण करके स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक में पैसे और अंकों का खेल चल निकला है।
ये वो दौर है, जब अधिकांश बच्चे और उनके अभिभावक प्राथमिक शिक्षा से ही तय कर लेते हैं कि उसे किस दिशा में जाना है या भेजना है। माध्यमिक शिक्षा खत्म होते-होते युवा तय करने लगते हैं कि उन्हें क्या बनना है। कई लोग तो बचपन से ही बच्चों को कोचिंग में धकेल देते हैं, तो बहुत सारे बच्चों को दसवीं के बाद कोचिंग शुरू कराई जाती है। माध्यमिक शिक्षा के बाद तो उन्हें सीधे-सीधे अपने भविष्य का रास्ते पर चलने को विवश होना पड़ जाता है।
डाक्टर, इंजीनियर, एडवोकेट, सीए, न्यायाधीश से लेकर तमाम नौकरियों से अन्य डिर्गियों के लिए तरह-तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है। और हमारे देश में इन दिनों ये अंतिम चरण सबसे बदहाल अवस्था में दिख रहा है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की हालत यह है कि छात्र उत्तीर्ण होकर आगे की कक्षाओं में पहुंच जाते हैं, लेकिन उनमें नीचे की कक्षाओं के बराबर पढऩे और गणित की क्षमता नहीं होती। देश में शिक्षा पर जीडीपी का कुल 3 प्रतिशत के आसपास ही निवेश हो रहा है। जबकि इसे और अधिक होना चाहिए। फिर, इस बजट का भी अधिकांश हिस्सा भ्रष्टाचार में चला जाता है। यही कारण है कि शिक्षा पूरी तरह से निजी हाथों में जाने की ओर अग्रसर है। और निजी क्षेत्र इसे पूरी तरह से व्यावसायिक बना चुके हैं।
यही वजह है कि डिग्रियां लेने के बावजूद युवाओं में अकादमिक क्षमता का स्तर नहीं बढ़ता। ये भी बार-बार सामने आता है कि हमारे ग्रेजुएट बाजार के मानकों खरे नहीं उतरते, इसलिए वे रोजगार पाने लायक ही नहीं होते। प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयारी का बाजार तो पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हाथों में जा चुका है। पुलिस या फौज के सिपाही से लेकर आईएएस-डॉक्टर-इंजीनियर -मैनेजर तक की कोचिंग निजी खर्चे पर उपलब्ध है। अब तो सरकारी विभागों में भी आउटसोर्स से ही नौकरी दी जा रही है।
दुख इस बात का है कि कोङ्क्षचग लेकर या अपने स्तर पर जीतोड़ मेहनत करके जब युवा प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता है, वह व्यापमं, नीट, यूजीसी नेट जैसे घोटालों की भेंट चढ़ जाता है। लगभग हर तीसरी परीक्षा में पेपर लीक से लेकर अन्य तरह की धांधलियां सामने आती हैं। जिनमें नहीं आतीं, उन पर भी अब भरोसा नहीं रहा। 80 के दशक से पहले पेपर लीक की घटना अपवाद स्वरूप ही होती थी, लेकिन आज पेपर लीक न हो, यह अपवाद है।
वर्तमान में नई शिक्षा नीति लागू हो चुकी है। इसकी बड़ी तारीफें भी की जा रही हैं। एक विचारधारा के लोग तो इसे नया इतिहास बता रहे हैं। लेकिन हकीकत ये है कि बरसों से सक्रिय शिक्षा के भूमिगत बाजार को या तो समाप्त करने की इच्छा शक्ति नहीं है, या फिर ये खुद उस धंधे का हिस्सा बन चुके हैं। बात कड़वी हो सकती है, लेकिन सच तो सच ही होता है। एक तरफ हम कहते हैं कहीं गड़बड़ नहीं है, दूसरी तरफ पेपर लीक और अन्य मामलों के चलते केस दर्ज हो रहे हैं, गिरफ्तारियां हो रही हैं, बड़े अधिकारियों को हटाया भी जा रहा है। फिर क्लीन चिट कैसे दी जा सकती है?
आज संगठित होकर नकल कराने वाले माफिया के बारे में सभी जानते हैं, पर इस तथ्य से लोग जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं कि पंजाब, बिहार और यूपी से लेकर मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में न जाने कितने ऐसे शिक्षक हैं, जिनकी जगह दूसरे लोग पढ़ा रहे हैं। नियुक्ति पाने वाला केवल तनख्वाह उठाता है, और अपनी जगह पढ़ाने वाले को उसका एक हिस्सा दे देता है। प्राचार्य की भी इसमें मिलीभगत होती है। मोटी रकम देकर किसी भी विषय में पीएचडी की थीसिस लिखवाने का एक पूरा कुचक्र तो लंबे समय से चल रहा है। हजारों-लाखों में कोई-कोई थीसिस ही ढंग की होती है। बाकी सभी स्तरहीन, घिसे-पिटे शोध, कट-पेस्ट या खानापूर्ति वाले फील्ड वर्क पर आधारित होती हैं।
सही बात तो यह है कि हमारे कालेज और विश्वविद्यालय ज्ञानार्जन के केंद्र नहीं रह गए हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कोर्स पूरा कराने वाली संस्था बने हुए हैं। उन्हें मिलने वाली रेटिंग किसी छलावे से कम नहीं है, क्योंकि वह पीएचडी या ऐसी ही अन्य डिग्रियां बांटने की संख्या पर आधारित होती है। मौलिकता और अकादमिक श्रेष्ठता से पूरी तरह से वंचित शोध-प्रबंधों के आकलन की इस रेटिंग में कोई भूमिका नहीं होती। कथित उच्च शिक्षा पाया छात्र जब मुंह खोलता है तो उसकी हकीकत सामने आ जाती है।
सही बात तो यहै कि शिक्षा की बदहाली का सीधा संबंध बेरोजगारी की समस्या से है। इसके बाद भी शिक्षा हमारी प्राथमिकताओं में कहीं नीचे है। और निश्चित तौर यही कारण है कि न तो हम शिक्षा प्रणाली में सुधार ला पा रहे हैं और न ही बेरोजगारों की फौज कम कर पा रहे हैं। गुणवत्ता वाली शिक्षा के लिए लोग देश के कुछ गिने-चुने शहरों के अलावा विदेशी विश्वविद्यालयों पर ही निर्भर हो गए हैं। सबसे पहले तो हमें गलती मानकर उसमें सुधार करने की दिशा में चलना होगा। जब हम कमी स्वीकार नहीं करेंगे तो सुधार कैसे होगा? परीक्षा व भर्ती घोटालों के कुचक्र को केवल कानून से नहीं तोड़ा जा सकता है। हर चीज राजनीतिक संरक्षण से जुड़ी हुई है, इसलिए सबसे पहले यह संकल्प लेना जरूरी है कि हम अपना-तुम्हारा न करते हुए एक साफ सुथरी व्यवस्था बनाने का प्रयास करें। नालंदा का इतिहास वापस लाने के लिए यह पहला कदम होगा। अन्यथा संकल्प भी तमाम विकास योजनाओं की तरह कागजों में सिमट कर दम तोड़ देंगे।
– संजय सक्सेना
Editorial
संकल्पों की मंजिल बनाम घोटालों का दलदल
