Editorial
हमारा मतदाता…


आम चुनाव के पहले चरण का मतदान हो चुका है और हम सभी 4 जून को घोषित होने वाले परिणामों को जानने के लिए उत्सुक हैं, परंतु इस बार मतदाता की चुप्पी पिछली बार जैसी नहीं है। मतदाता जिन मुद्दों को चुनावी मुद्दे मान कर चल भी रहा है, तो उसके आधार पर वोटिंग नहीं होने की बात भी कह रहा है। यह विरोधाभास बहुत कम देखने को मिलता है। फिर भी पहले चरण को देखते हुए कुछ बातें सामने आई हैं, जिनका जिक्र आवश्यक माना जा रहा है।
यह कोई नई बात नहीं है कि भारतीय परिवारों का एक हिस्सा ऐतिहासिक रूप से हमेशा एक ही पार्टी को वोट देता आ रहा होता है। ऐसा उस पार्टी की विचारधारा, नेतृत्व या पीढ़ीगत रूप से उसके प्रति जुड़ाव भी इसका एक कारण हो सकता है। इसमें उस पार्टी की लोकप्रियता में कमी या वृद्धि के आधार पर घटत-बढ़त होती रहती है। लेकिन इसे हम फ्लोटिंग वोट के दायरे में रखते हैं। फिक्स या परंपरागत वोटर को इससे फर्क नहीं पड़ता कि उसने कौन-सा उम्मीदवार उतारा है या उसके घोषणा-पत्र में क्या है। इस तरह के  वोट को बदलने के लिए कड़ी मुहिम चलाने का भी कोई फायदा नहीं है, क्योंकि चाहे कितने ही वॉट्सएप फॉरवर्ड क्यों न देख लें, इस तरह के वोटर अमूमन अपना मन नहीं बदलते। हम भोपाल जैसे कुछ क्षेत्रों में देखते हैं कि मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा एक पार्टी का परंपरागत वोटर बन चुका है। तमाम विरोधाभासों के बावजूद वह बदलने को तैयार नहीं दिखता। वह कभी यह विश्लेषण या समीक्षा करने की कोशिश भी करते नहीं दिखता कि उसे इससे कितना नुकसान हुआ या कितना लाभ?
यही कारण है कि पार्टियां अपने फिक्स्ड वोटरों को हलके में नहीं ले सकतीं। उन्हें उनकी न्यूनतम अपेक्षाओं के अनुरूप बने रहना ही पड़ता है। जैसा कि कहा जाता है, ‘कभी भी अपने समर्थक-आधार को नाराज न करें।’ लोकसभा चुनाव प्रधानमंत्री के चयन का भी माध्यम है। इसलिए इसमें प्रधानमंत्री पद के लिए एक निश्चित चेहरा बहुत मायने रखता है। यकीनन, केवल चेहरा होना ही काफी नहीं है। चेहरा एक व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें कुछ अपेक्षित गुण भी होने चाहिए। इसमें सबसे बड़ा गुण है मजबूती। और पिछले चुनाव से यह आम चुनाव का प्रमुख आधार बनता दिख रहा है। नेता को भले ही किसी माध्यम से मजबूत बताया जा रहा हो, सोशल मीडिया सहित पूरे मीडिया के साथ ही एक नया माध्यम आया है इन्फ्लुएंसर का। यह भी जनता और खासकर वोटर को प्रभावित करने लगा है। यही कारण है कि अब कुछ पार्टियां संगठन के आधार पर भले ही बढ़ीं हों, लेकिन अब कार्यकर्ताओं को हाशिए पर रखते हुए वोट बढ़ाने के लिए इन्फ्लुएंसर्स का सहारा लिया जा रहा है।
यह भी देखा जा रहा है कि भारत के ही नहीं दुनिया के तमाम देशों के लोग एक मजबूत नेता को पसंद करते हैं। इसका आकलन ठोस और साहसिक निर्णय लेने की उसकी क्षमता से किया जाता है। भारत दशकों तक धीमे क्रियान्वयन के दौर से गुजरा है और उसने शीर्ष नेतृत्व में विश्लेषण-क्षमता के अभाव का भी सामना किया है। इससे भारतीयों में एक मजबूत नेता के प्रति चाहत और बढ़ गई है। किसी नेता के अपनी विचारधारा और पहचान पर मजबूती से टिके रहने से भी उसकी ताकत का प्रदर्शन होता है, फिर भले ही यह सभी नागरिकों को और विशेषकर बुद्धिजीवियों को पसंद न आए।
यही कारण है कि अब मीडिया और सोशल मीडिया का उपयोग किसी व्यक्ति या नेता को आसमान पर टिके रहने के लिए किया जा रहा है। इन्फ्लुएंसर्स के सहारे उसे तो मजबूत बनाया जाता, लेकिन इन्हीं माध्यमों का उपयोग करके उसके प्रतिद्वन्द्वी या प्रतिद्वंद्वियों को अलोकप्रियता के गर्त में उतार दिया जाता है। या इसका प्रयास किया जाता है। यह सब कुछ सामने हो रहा है, लेकिन लोग इसके प्लस-मायनस में जाने की कोशिश नहीं करते। वे उसे तब तक पसंद करते रहते हैं, जब तक उनकी परेशानियां या समस्याएं गले तक नहीं, सिर के ऊपर तक नहीं आ जातीं।
हालांकि यह चुनाव एक व्यक्ति की लोकप्रियता के आधार पर होता भी दिख रहा है और मतदाता को मूल मुद्दों से भ्रमित करने में मिली सफलता के आधार पर भी। इसके बावजूद देश के कई हिस्से ऐसे भी हैं, जहां जाति और धर्म के आधार पर आज भी मतदान होता है। पार्टियां टिकट भी उसी आधार पर बांटती हैं। उसके पास इस बात के अपने ठोस कारण होते हैं कि वे इस तरह से मतदान क्यों करते हैं। जैसे मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में विधानसभा और लोकसभा चुनाव में प्राय: धु्रवीकरण कर दिया जाता है और खास पार्टी आराम से चुनाव जीत जाती है। कई राज्यों और कई अंचलों में जाति आधारित चुनाव आज भी होते हैं।
हम भले ही भारत के लोकतंत्र को मजबूत कहते रहें, इसकी प्रशंसा करते रहें, परंतु मतदान का आधार कम से कम लोकतंत्र के अनुसार तो नहीं बन रहा है। कहने को कुछ प्रतिशत मतदाता नीतियों के आधार पर वोट देने वाले बचे होंगे, जो नीतियों, कार्यक्रमों और प्रशासनिक कुशलता के आधार पर मतदान करते हैं। लेकिन इसमें कल्याणकारी के साथ ही मुफ्त यानि फ्रीबीज योजनाओं ने अपना प्रभाव ज्यादा जमाया है। जैसे मुफ्त या सब्सिडी वाली वस्तुएं। या यह महंगाई, टैक्स, बुनियादी ढांचा, रोजगार, हेल्थकेयर, शिक्षा आदि से सम्बंधित योजनाओं को भी वोट का आधार मान लिया जाता है। पर इस तरह के मतदाता स्विंग भी कर सकते हैं, क्योंकि उन्हें मुफ्त की योजनाओं की आदत पड़ जाती है।
कुछ भी विश्लेषण कर लें, या समीक्षा। मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग मतदान के ऐन पहले अचानक पलटी मारने वाला हो चुका है। और पिछले कुछ चुनावों से इसका प्रतिशत बढ़ता दिख रहा है। इनका कोई खास आधार नहीं होता। हां, इन्हें किसी भी तरह से प्रभावित करना होता है। इसलिए अब पार्टियां इसी वोटर के सहारे जीत के दावे भी करने लगी हैं।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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