हम विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर तो हैं, लेकिन सबसे ज्यादा खटकने वाली बात यह है कि हमारे यहां जो शहरीकरण हो रहा है, वो न केवल बहुत अव्यवस्थित है, अपितु अराजक जैसा है। और शायद यही अव्यवस्थित विकास हमें पश्चिमी देशों से अलग कर देता है।
तेजी से बढ़ती जनसंख्या के साथ शहरों की ओर पलायन करती भीड़ को सम्हालना बहुत मुश्किल काम है, लेकिन स्थायी और समावेशी शहरी विकास एक अपरिहार्य तत्व है। तेज शहरीकरण, पर्यावरण परिवर्तन और सामाजिक असमानता से तत्काल निपटने के लिए व्यवस्थित विकास ही एकमात्र विकल्प है, जिसे हम प्राय: अनदेखा कर देते हैं।
ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए देश को कुशल प्लानरों और ऐसे पेशेवरों की जरूरत है, जो पर्यावरण के अनुकूल, सभी को समान अवसर देने वाले और सशक्त शहरी वातावरण को सार्थक दिशा देने की क्षमता रखते हों। भारत में प्लानिंग एजुकेशन तो चल रही है, लेकिन जब भी शहरों की योजनाएं बनाने का मौका आता है, इसमें राजनीति का प्रवेश हो जाता है। और वर्तमान में तो प्रशासनिक अतिमहत्वाकांक्षाओं का विस्तार भी हमें सही प्लानिंग लागू नहीं करने देता।
देखा जाए तो अब हमें प्लानिंग के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आयामों के व्यापक परिदृश्य वाला दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। इस दिशा में परिणाम आधारित शिक्षा की पहल उपयोगी होगी। इसके अंतर्गत पाठ्यक्रम कुछ इस तरह निर्धारित करना होगा कि वह रोजगार बाजार की तेजी से बढ़ती मांग के अनुरूप हो।
पहले तो, प्लानिंग संस्थानों से ऐसे स्नातक निकलें, जो केवल सैद्धांतिक ज्ञान से ही लैस न हों, बल्कि उनके पास तकनीकी, विश्लेषणात्मक और संवाद के ऐसे कौशल हों, जो वास्तविक दुनिया की चुनौतियों से जूझ सकें। इसके साथ ही उनमें नीतियों के विश्लेषण की क्षमता हो और वे सामाजिक समानता और आर्थिक विकास की बारीकियों को समझते हों।
इस दिशा में इंस्टीट्यूट आफ टाउन प्लानर्स जैसे नियामकीय निकाय यह सुनिश्चित करते हैं कि प्लानिंग का काम संकीर्ण रियल एस्टेट हितों के बजाय व्यापक जनहित को प्राथमिकता दे। इसमें सभी पक्षों के साथ समन्वय के लिए आवश्यक है कि प्लानरों के पास मजबूत प्रबंधकीय कौशल हो, जिसमें विवादों का समाधान, बातचीत, मध्यस्थता और पैरवी शामिल है। लेकिन यहां से निकले लोगों को सरकारों की तरफ से ज्यादा महत्व ही नहीं मिल पाता और वे या तो निजी क्षेत्रों में चले जाते हैं या फिर विदेश की ओर कूच कर जाते हैं।
मेडिकल शिक्षा की तरह अर्बन प्लानिंग को भी मात्र एक डिग्री तक सीमित नहीं होना चाहिए। हमें प्लानरों को लगातार सिखाने की प्रक्रिया से गुजारना होगा। अर्बन प्लानिंग में विशेषज्ञता के कोर्स ऐसे होने चाहिए, जिससे ये प्लानर नवाचार और टिकाऊ शहरी विकास की अग्रणी पंक्ति में शामिल हो सकें। शहरी नियोजन के इस नए युग में जोर तकनीकी विशेषज्ञता पर होना चाहिए। निर्णय लेने की प्रभावशाली प्रक्रिया और समन्वय के लिए साफ्ट स्किल्स का विकास जरूरी है। इसमें संवाद का महत्व बढ़ जाता है।
भारत के भविष्य निर्माण के लिए शहरी प्रबंधन शिक्षा एक महत्वपूर्ण निवेश है। हमारे पास एक बेहतर भारत की कल्पना और रूपरेखा है। लेकिन इसमें अनचाहे राजनीतिक और प्रशासनिक हस्तक्षेप की बीमारी को दूर करना होगा।
हमारे निहित स्वार्थ और सरकारी से लेकर सस्ती जमीनों को हथियाने की आदत के साथ ही केवल अपने नजरिये से विकास की परिकल्पना यदि हम नहीं छोड़ पाते, तो बेहतर शहरी नियोजन नहीं हो सकता। उदाहरण के तौर पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का मास्टर प्लान राजनीतिक और प्रशासनिक अंतरविरोधों, महत्वाकांक्षाओं और निजी स्वार्थों के चलते ही दो दशक बाद भी लागू नहीं हो पा रहा है। ऐसी स्थितियां बनेंगी, तो हम सुव्यवस्थित शहरी विकास नहीं कर पाएंगे और हमारे अच्छे से अच्छे नियोजनकार भी बेकार बैठे रहेंगे।
Editorial : शहरी नियोजन बनाम अव्यवस्था, अराजकता और स्वार्थपरता …!
