Editorial
मातृ संगठन से अलगाव या..?

अब भाजपा को संघ की जरूरत नहीं है। यह बात किसी और ने नहीं अपितु भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कही है। असल में भाजपा अध्यक्ष नड्डा के एक ताजा इंटरव्यू से उनकी पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच संबंधों का सवाल फिर से खुल गया है। नड्डा ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि जब उनकी पार्टी छोटी और आज की तरह सक्षम नहीं थी, उस समय वह संघ की मदद लेती थी। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। नड्डा कहते हैं कि पार्टी का विस्तार हो चुका है और उसकी क्षमता बढ़ चुकी है। अब संघ उसके संचालन में कोई भूमिका नहीं निभाता।
तो क्या यह मान लिया जाए कि भाजपा संघ से पूरी तरह स्वायत्त हो चुकी है? और यदि ऐसा है, तो आम चुनावों के बीच में अचानक भाजपा के छत्रपों को संघ की याद क्यों आ रही है? वे संघ की इस चुनाव में कथित उदासीनता से क्यों परेशान हैं? और भी कई सवाल हैं, जिनके उत्तर तलाशे जा रहे हैं। असल में संघ को भाजपा अपना मातृ संगठन मानता रहा है। भाजपा के विस्तार से लेकर चुनावों में जीतने की भूमिका बनाने तक में संघ का महत्वपूर्ण योगदान पिछले कई दशकों से मिलता रहा है।
आज माहौल कुछ बदला-बदला सा लग रहा है। फिर भी, संघ भले भाजपा को न चला रहा हो, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि अब संघ के कामकाज में भाजपा की भूमिका बढ़ गई हो? यानी जो नियंत्रक था, वह कहीं नियंत्रित तो नहीं होने लगा है? क्या भाजपा और संघ के संबंध एक दोराहे पर नहीं खड़े हैं? पिछले दिनों संघ में जिस तरह से चुनाव हुए और जिन पदाधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई, उससे खुद संघ के हजारों कार्यकर्ता खुश नहीं हैं। यह चर्चा भी चल निकली कि संघ पर भाजपा के कुछ गिने चुने लोग अपना नियंत्रण करना चाहते हैं।
अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ को स्थापित करने के बाद संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर ने कहा था कि जनसंघ तो गज्जर की पुंगी है। जब तक बजेगी बजाएंगे, और जब नहीं बजेगी तो खा जाएंगे। गोलवलकर ने ऐसी बात संघ के किसी अन्य संगठन के बारे में कभी नहीं कही थी। उनके मन में कहीं न कहीं यह अंदेशा था कि चुनावी राजनीति में सक्रिय होने के लिए गठित यह पार्टी आगे चलकर संघ द्वारा थमाए एजेंडे से अलग हटकर दूसरा रास्ता भी अपना सकती है।
अभी तक तो संघ ने भाजपा को अपने प्रचारकों के जरिए कड़ाई से नियंत्रित किया। इन प्रचारकों को भाजपा में संगठन मंत्री बनाने पर विशेष जोर दिया गया। चाहे अटल हों या आडवाणी या फिर मोदी- ये सभी भाजपा में संघ से ही भेजे गए थे। विचारधारा भले ही हिंदू राष्ट्रवादी बनी रहे, पर दोनों का रास्ता काफी कुछ अलग-अलग हो सकता है। उदाहरण के तौर पर, संघ अतिशय व्यक्तिवाद को नापसंद करता है और वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत ने 2014 की जीत के दो महीने के बाद कहा भी था कि ‘भाजपा को जीत किसी एक व्यक्ति की वजह से नहीं मिली है। इसके बाद भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भागवत से और दूर हो गया। यही नहीं, उसने भागवत के समानांतर नेतृत्व को संघ में उभारने की कोशिश भी शुरू कर दी।
फिलहाल, नड्डा के इंटरव्यू के बाद सवाल यह भी उठता है कि संगठन मंत्री की हैसियत से पार्टी को चलाने वाले ये प्रचारक अंतत: किसके नियंत्रण को मानेंगे- अपने मातृ -संगठन संघ को या मोदी-शाह की भाजपा के आलाकमान के? संघ भले ही व्यक्ति विशेष पर केंद्रित नहीं हो, परंतु यह सच है कि आज की भाजपा पिछले दस साल में पूरी तरह से एक व्यक्ति के करिश्मे पर आधारित होती चली गई है।
2015 में भागवत ने दिल्ली में मप्र सरकार के मध्यांचल नामक भवन में केंद्र सरकार के मंत्रियों को तीन दिन तक एक-एक करके तलब करके भाजपा पर अपने नियंत्रण का प्रदर्शन किया था। इस जवाब-तलबी में प्रधानमंत्री को भी जाना पड़ा था। संघ के पंद्रह संगठनों के मुखियाओं ने इस बैठक में सरकार के सामने कई सवाल किए थे। लेकिन यह अपने तरह की आखिरी बैठक साबित हुई। इसके बाद के घटनाक्रम पर सरसरी नजर डालने से ही स्पष्ट हो जाता है कि पिछले नौ साल में भाजपा संघ की इस तरह की जवाब-तलबी से पूरी तरह आजाद हो चुकी है। उसने अपनी सरकार में संघ के लिए शिक्षा और संस्कृति का क्षेत्र सक्रियता के लिए छोड़ रखा है, पर बाकी किसी क्षेत्र में संघ की नहीं सुनी जाती। प्रशासन में भी नहीं।
अटल बिहारी सरकार के मुकाबले मौजूदा सरकार में संघ के लोगों की नियुक्ति संख्या की दृष्टि से बहुत कम है। राम मंदिर की बात करें तो भव्य प्राण प्रतिष्ठा के टीवी पर हुए प्रसारण में हर स्वयंसेवक देख सकता था कि इस कार्यक्रम के केंद्र में मोदी ही थे। सरसंघचालक कार्यक्रम में थे जरूर, लेकिन दूसरे नम्बर पर। कहना न होगा कि पिछले दस साल में स्थापित हुए भाजपा के राजनीतिक प्रभुत्व का लाभ संघ को भी बहुत मिला है। आज संघ के विभिन्न संगठनों के दफ्तर शानदार भवनों में हैं। संघ के पदाधिकारी विलासी जीवन की ओर चल पड़े हैं। संघ चाहता तो बिना भाजपा सरकार के भी इस तरह का विकास कर सकता था। लेकिन उसकी सांगठनिक संस्कृति में आई भव्यता भाजपा के सरकारीकरण की देन ही है।
संघ के भीतरी माहौल और संरचना पर नजदीकी निगाह रखने वाले जानकारों की मानें तो संघ में आज ऐसे लोग तैनात हो चुके हैं, जो भाजपा के बढ़ते प्रभुत्व से चिंतित होने के बजाय इससे सहज प्रतीत होते हैं। नड्डा का वक्तव्य चुनाव के बीच सामने आया है। खासकर एक ऐसे माहौल में जब स्वयंसेवकों द्वारा अनमने भाव से चुनावी मुहिम में भाग लेने की चर्चा गर्म है। इसे भाजपा के आत्मविश्वास का परिचायक भी माना जा सकता है। और संघ के कतिपय पदाधिकारियों की दृष्टि में अतिआत्मविश्वास का। परंतु इस चुनाव से कथित तौर पर संघ की दूरियां कुछ अलग कहानी नहीं कह रही हैं। भाजपा को फिलहाल संघ के अधिसंख्य लोग अपनी मजबूरी कहकर टाल देते हैं। लेकिन जो कुछ वहां हो रहा है, उससे बहुत सहमत नहीं है।
पहले तो चुनाव के परिणामों की प्रतीक्षा है। वैसे तो चुनाव के पांच चरणों में जो माहौल बना, वही बहुत कुछ कह रहा है। लेकिन यहां इलेक्शन मैनेजमेंट के गुरू और महागुरू बैठे हैं, किस स्तर पर क्या कर दें, कुछ अनुमान तक नहीं लगाया जा सकता। फिर भी, संघ और भाजपा के बीच के रिश्तों की कहानी के अगले पड़ाव पर नजर तो रहेगी।

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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