संपादकीय
सवाल तो उठाए जाएंगे… और उंगली भी उठेगी…!


कहीं हम पाकिस्तान, बंगलादेश जैसे देशों की राह पर तो नहीं चल पड़े हैं, जहां विपक्षी नेताओं को जेलों में डाल दिया जाता है? कहीं हम भी रूस और चीन के रास्ते पर तो नहीं चल रहे हैं, जहां आंदोलन करने वालों को गोलियों से भून दिया जाता है? और यह भी, क्या हमें एक बार ठहरकर इस पर विचार नहीं करना चाहिए कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में आज हमारी संस्थाओं पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं?
प्रश्न तो उठेंगे, क्योंकि जो कुछ भी हो रहा है, वह स्वस्थ लोकतंत्र तो नहीं दिख रहा है। ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि आज हम उस जगह पहुंच गए हैं, जहां पश्चिम के देशों और संयुक्त राष्ट्र को भी लगता है कि वे हमारी आलोचना करने के लिए वैसे ही स्वतंत्र हैं, जैसे वे नियमित रूप से चीन और रूस जैसे निरंकुश देशों या पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे हमारे उन पड़ोसियों की आलोचना करते आ रहे थे, जो बहुत पहले ही लोकतंत्र कहलाने का अधिकार गंवा चुके थे? यह इसलिए और भी दुर्भाग्यपूर्ण कहा जा रहा है क्योंकि ये टिप्पणियां ऐसे समय आ रही हैं, जब भारत पिछले साल एक सफल जी-20 शिखर सम्मेलन की मेजबानी कर चुका है।
हम वही भारत हैं, जो दुनिया के दूसरे देशों में शांति सेनाएं भेजता आया है। जो दुनिया के देशों में होने वाली जंग की मध्यस्थता करता आया है। हमने यूक्रेन और रूस के बीच तनाव कम करने के लिए सक्रिय रूप से मध्यस्थता भी की थी। हम निश्चित तौर पर एक विश्व नेता बनने की महत्वाकांक्ष रखते हैं। और शायद हमारे अंदर क्षमता भी है। ऐसे में हमें ईमानदारी से आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता है। जब भारत आम चुनाव की दहलीज पर है, ऐसे समय में विपक्षी नेताओं को जेल भेजने की घटनाओं पर पूरी दुनिया का ध्यान लगा हुआ है।
देखा जाए तो वर्तमान के भू-राजनीतिक हालात कुछ ऐसे हैं कि उसमें पश्चिम के लिए भारत की लोकतांत्रिक साख का गहरा होना और भी अधिक महत्वपूर्ण है। चीन के उदय और बीजिंग और मॉस्को के बीच आपसी हितों की धुरी के निर्माण ने स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है। भारत- अपने विशाल आकार, रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के साथ- रूस-चीन धुरी के समक्ष स्थिरता लाने वाली शक्ति के रूप में उभरने की क्षमता रखता है। हालांकि इसके पीछे पश्चिम का अपना एजेंडा हो सकता है, लेकिन हमारे लिए भी यह समझना महत्वपूर्ण है कि चीन के समक्ष भारत का उदय हमारे लिए बहुत लाभकारी ही है।
यह आवश्यक है और मौजूं भी, कि हम एक ऐसी शक्ति के रूप में विकसित हों, जिसे दुनिया भर में सम्मान की दृष्टि से देखा जाए, खासकर हमारे निकटतम-पड़ोस में। इसमें चीन भी शामिल है, जिसके साथ आज हम विभिन्न बिंदुओं पर सीमा-विवाद में फंसे हुए हैं। ऐसे विवाद जो लंबे समय से चले आ रहे हैं और हम किसी हल पर नहीं पहुंच पा रहे हैं। लेकिन चीन का काउंटरपार्ट बनने के लिए हमें कम से कम अपने एक अलग स्वरूप को सामने रखना होगा, जो इस नैरेटिव को लोकतंत्र के इर्द-गिर्द ही रहे। अगर हमें भी एक लोकतांत्रिक तानाशाही के रूप में देखा जाने लगे तो हम चीन से बहुत अलग साबित नहीं होंगे। जैसा कि आज देखा और कहा जाने लगा है।
क्या हमें नहीं लगता कि हमें स्वतंत्र पहचान बनानी चाहिए, जो चीन और रूस से अलग हो। यह सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि हमें पश्चिम से अपने लिए कोई मान्यता चाहिए। अपितु यह ग्लोबल साउथ का लीडर बनने की हमारी आकांक्षा के अनुरूप भी है। और इसे हमें स्वीकार करना चाहिए। आज दो-दो  निर्वाचित मुख्यमंत्री- अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन- भ्रष्टाचार के ऐसे आरोपों में जेल की सलाखों के पीछे हैं, जिनका अभी तक प्रमाणित होना शेष है। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस करोड़ों रुपए के बकाया कर-नोटिस की शृंखला के कारण कमजोर पड़ रही है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी को कहना पड़ रहा है कि उनके पास चुनाव लडऩे के लिए पैसे नहीं हैं। चुनाव प्रक्रिया प्रभावी होने के बावजूद प्रवर्तन निदेशालय  यानि विपक्षी उम्मीदवारों के खिलाफ मामले दर्ज कर रहा है। लेकिन जिन लोगों ने भाजपा से हाथ मिला लिया है- जैसे कि राकांपा के अजित पवार गुट के प्रफुल्ल पटेल- उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले को सीबीआई द्वारा हटाकर उन्हें क्लीन चिट दे दी गई है। और महाराष्ट्र के पूर्व सीएम जिन्हें कांग्रेस ने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते हटा दिया था, उन्हें भाजपा ने न केवल पार्टी में शामिल कर क्लीन चिट दे दी, अपितु राज्यसभा भेज दिया। और भी ऐसे तमाम मामले हैं, जो जनता के सामने हैं। और जांच एजेंसियों द्वारा पिछले एक दशक से ज्यादा समय के मामलों के परिणामों का प्रतिशत भी सामने हैं, जिनमें उन्हें सफलता मिली। ईडी की सफलता तो एक प्रतिशत भी नहीं बताई जा रही। ऐसे में इस एजेंसी की कार्रवाइयों पर भी उंगली तो उठेगी।
विपक्षी दलों को जांच एजेंसियों के दम पर नहीं, जनता में अपनी बढ़ती स्वीकार्यता के दम पर हराने का जज्बा होना चाहिए। आज माहौल सत्तापक्ष के साथ होने का दावा किया जा रहा है, तो फिर विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई की जरूरत ही नहीं होना चाहिए। विचार तो करना पड़ेगा। और कुछ ठोस कदम भी उठाने होंगे। देश ही नहीं विदेशों से उठती उंगलियों को केवल यह कहकर नहीं नकारा जा सकता कि हमारे खिलाफ साजिश है।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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