Editorial
उदासीन मतदाता, चिंता में राजनेतिक पार्टियां


आम चुनाव के दो चरणों का मतदान हो चुका है, लेकिन तीसरे चरण के दौरान तक चुनाव का माहौल बनना चाहिए था, अभी तक नहीं बन सका है। शत प्रतिशत मतदान की बात की जा रही है, लेकिन कई इलाकों में पचास प्रतिशत भी मतदान नहीं हुआ। और आगे के चरणों में भी बहुत ज्यादा मतदान होने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। ऐसे में राजनीतिक से लेकर सामाजिक विशेषज्ञ यह विश्लेषण करने को विवश हैं कि आखिर इस बार मतदाताओं में चुनाव को  लेकर उत्साह क्यों नहीं दिख रहा?
वैसे तो यह भी कहा जा सकता है कि देश के अधिकांश हिस्सों में तेज गर्मी पड़ रही है और फसलों की कटाई भी हो रही है, इस कारण मतदान में गिरावट आ सकती है। लेकिन यह पूरा सच नहीं माना जा सकता। सही बात तो यह दिख रही है कि देश के कई हिस्सों में मतदान करने की भावना ही कम हुई है। ऐसा लग रहा है कि आम मतदाता अपने सामने मौजूद विकल्पों को लेकर बहुत उत्साहित नहीं महसूस कर रहा है।
राजनीतिक समीक्षक तो ये भी मान रहे हैं कि चुनाव से पहले ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे का शोरगुल भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार है। ऐसा माना जा रहा था जैसे नतीजों का फैसला पहले ही हो चुका है और अब केवल यह देखना बाकी है कि 1984 में राजीव गांधी की 414 लोकसभा सीटों का रिकॉर्ड टूटेगा या नहीं। सत्तापक्ष का नारा कितना सच होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जनता ये कहते सुनी जा सकती है कि उन्हें तो जीतना ही है, फिर क्यों मेहनत की जाए? उनके वोट से क्या हो जाएगा? कौन सा बदलाव आ जाएगा।
लेकिन जैसे-जैसे चुनाव-अभियान आगे बढ़ रहा है, राज्य-दर-राज्य चुनावी-संघर्ष जमीन पर आता दिख रहा है।
यह अकारण नहीं है कि पहले दौर के मतदान में औसतन तीन प्रतिशत की गिरावट के ठीक एक दिन बाद भाजपा अपने मूल मुद्दों की तरफ लौटती दिखी। पहले सनातन और राम मंदिर चला, बीच में कुछ मुद्दे बदले। 2047 तक ‘विकसित भारत’ के वादे के साथ चुनाव-अभियान में प्रवेश किया गया था और अब डर की राजनीति सामने आती दिख रही है। जब कांग्रेस के घोषणापत्र की तुलना मुस्लिम लीग से की जाती है तो लगने लगता है कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ की नेक बातें केवल दुनिया की स्वीकार्यता अर्जित करने के लिए ही हैं। लेकिन अगर भाजपा ने लंबे समय से निर्मित अपनी सांप्रदायिक छवि को पुनर्जीवित कर दिया है तो कांग्रेस भी काल्पनिक भय की शिकार हो रही है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी रैलियों में संविधान की प्रति लहराते हुए चेतावनी दे रहे हैं कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो वे दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के लिए आरक्षण खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन करेंगे।
जबकि औसत मतदाता आजीविका के बुनियादी सवालों से घिरा है और उस पर ये तमाम चुनावी बातें बेअसर साबित हो रही हैं। अ
पिछले पांच साल कई भारतीयों के लिए कठिन रहे हैं। महामारी, लॉकडाउन, महंगाई, नौकरियां छूटना, बेरोजगारी, घटती आमदनी आदि ने कोई ऐसा माहौल नहीं बनाया है कि मतदाता ‘फील-गुड’ करें। दुनिया में ‘उभरता हुआ भारत’ पांच सितारा समारोहों में भले ही चर्चा का विषय हो, लेकिन गर्मी और धूल से जूझते ग्रामीण भारत में आज भी पानी का टैंकर आठ दिनों में केवल एक बार आता है। एक तरफ उत्साहपूर्ण बयानबाजी और दूसरी तरफ जीवन की कठोर वास्तविकताओं के इस अंतर ने ही कई मतदाताओं को मतदान-प्रक्रिया के प्रति उदासीन बना दिया है।
इसके बाद भी लोग विकल्प को लेकर बेहद उदासीन लग रहे हैं। मतदाता तो ठीक, पार्टियों के राजनीतिक कार्यकर्ता भी अब चुनाव-प्रणाली को लेकर उत्साहपूर्ण नहीं दिखते हैं। सवाल भी वाजिब है कि जब नेता हर कीमत पर सत्ता में बने रहने के लिए लगातार समझौते कर रहे हों और कल के कट्टर विरोधी आज के गठबंधन सहयोगी बन जाते हों तो एक वफादार कार्यकर्ता जमीन पर मेहनत क्यों करेगा? अवसरवादिता ने कार्यकर्ताओं में राजनीति को लेकर संशय पैदा कर दिया है, वह भी भाजपा जैसी संगठन आधारित पार्टी में। मध्यप्रदेश जैसे मजबूत संगठन वाले राज्य में भाजपा का कार्यकर्ता आयातित राजनेताओं के कारण सुस्त होता जा रहा है।
हमारे देश का आर्थिक परिदृश्य भी काफी कुछ इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। एक तरफ ट्रिलियन इकानामी की बातें, दूसरी तरफ मुफ्त राशन बांटने को विवश सरकार। यानि गरीबी दूर नहीं हुई। अमीरों-गरीबों के बीच की खाई भी बढ़ती जा रही है। कुछ प्रतिशत लोग अधिकांश नागरिकों के बराबर सम्पत्ति वाले हो गए हैं। अधिसंख्य लोग कर्ज लेकर जीविका चला रहे हैं। ऐसे में क्या आश्चर्य कि राज्यभर के ग्रामीण इलाकों में मतदाताओं का अधूरे वादों से मोहभंग हो चुका है। तब सवाल उठता है कि मतदाताओं की इस थकी हुई मानसिकता से चुनावी तौर पर किसे फायदा या किसे नुकसान होगा?
एक तरफ सामूहिक नेतृत्व से व्यक्तिवादी होती भाजपा को पूरा भरोसा है कि एक ऐसे नेता के नेतृत्व में उनकी बेहतर चुनावी ‘संगठन’ मशीन जीत की हैट्रिक सुनिश्चित करेगी, जिस पर जनता को अभी भी भरोसा है। दूसरी ओर कांग्रेस इस उम्मीद पर टिकी है कि मतदाताओं की उदासीनता उसे कम से कम करीबी मुकाबले वाली सीटों पर लडऩे का मौका जरूर देगी। लेकिन मतदाता की उदासीनता का मुद्दा फिलहाल वहीं का वहीं दिख रहा है। राजनीतिक पार्टियों से लेकर चुनाव आयोग और उसके अधीन आने वाला स्थानीय प्रशासन वोट प्रतिशत बढ़ाने के प्रयासों में जुटा है। कथित तौर पर तमाम अभियान भी चलाए जा रहे हैं। अब अगले चरण के मतदान का इंतजार करते हैं।
– संजय सक्सेना

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

Related Articles