Editorial: कश्मीर में चुनाव

केंद्रीय निर्वाचन आयोग ने शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान कर दिया। पिछले लोकसभा चुनावों के अनुभव की रोशनी में यह देखना सुखद है कि इस बार आयोग ने चुनावों की अवधि को काफी छोटा रखा है। इसके बाद भी कुछ और सवाल इन घोषणाओं को लेकर उठ रहे हैं, जो स्वाभाविक हैं।
पिछले पांच वर्षों से निर्वाचित सरकारों से वंचित जम्मू-कश्मीर में चुनावों का बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे लेकर अधिकतम 30 सितंबर की समयसीमा भी तय कर दी थी। यह अच्छा है कि उसका सम्मान करते हुए इलेक्शन कमिशन ने चुनाव प्रक्रिया समयसीमा खत्म होने से काफी पहले शुरू कर दी, लेकिन आखिरी चरण का मतदान एक अक्टूबर तक खिंचने से, फिर भी नहीं बचा जा सका।
कहने को निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र निकाय अवश्य माना जाता है, लेकिन कहीं न कहीं सरकार से प्रभावित तो रहता ही है। सरकार और प्रशासन के अलग-अलग स्तंभों की कार्यदिशा में न्यूनतम सामंजस्य की अपेक्षा गलत नहीं कही जाएगी। ऐसे में जब केंद्र सरकार पिछले कई वर्षों से एक राष्ट्र एक चुनाव की वकालत करती आ रही है और एक दिन पहले लालकिले से दिए गए भाषण में भी प्रधानमंत्री ने इसकी जरूरत को रेखांकित किया था, तब महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों के चुनाव भी साथ करवाए जाने की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन फिलहाल कश्मीर के साथ केवल हरियाणा के चुनाव हो रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर को विशेष मामला माना जाए तो भी वहां 30 सितंबर से पहले चुनाव कराने के बाद छह महीने की अवधि के अंदर कार्यकाल पूरा करने वाली सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने में कोई संवैधानिक बाधा नहीं थी। जम्मू-कश्मीर के लिए चुनाव इस लिहाज से खास हैं कि अनुच्छेद 370 के तहत मिला विशेष दर्जा समाप्त किए जाने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव होगा। इससे पहले लोकसभा चुनावों में मतदाताओं की जो उत्साहपूर्ण शिरकत देखने को मिली, उसके मद्देनजर इन चुनाव से एक नए दौर की शुरुआत की उम्मीद अस्वाभाविक नहीं कही जाएगी।
हालांकि कश्मीर में आतंक की घटनाओं पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है और पिछले वर्षों में बड़ी संख्या में सेना व अन्य बलों के जवान शहीद हो चुके हैं। लेकिन इसके पीछे आतंकी तत्वों की मंशा इन चुनावों को बाधित करने की ही लगती है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव ही उन तत्वों की साजिशों का सबसे अच्छा जवाब हो सकता है। और लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार को कितने अधिकार मिल पाते हैं, यह भी देखना दिलचस्प होगा। यही नहीं, उम्मीद तो यह भी की जानी चाहिए कि निर्वाचित सरकार के आने के बाद कश्मीर में शांति स्थापित हो जाएगी।
हरियाणा के चुनाव इस लिहाज से दिलचस्प हो गए हैं कि लगातार दो बार सरकार बनाने वाली बीजेपी के लिए लोकसभा चुनावों के नतीजे मनमाफिक नहीं आए। इसके बाद वहां कांग्रेस को अपने लिए ज्यादा उम्मीद नजर आ रही है। हालांकि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के नतीजे इस कदर अलग-अलग आते रहे हैं कि ऐसी उम्मीदों को एक हद से ज्यादा तवज्जो नहीं दी जा सकती। भाजपा ने वहां मुख्यमंत्री बदलकर संभावित नतीजों को बदलने की स्क्रिप्ट लिखी है, लेकिन उनका यह परिवर्तन बहुत सफल होता फिलहाल तो दिखाई नहीं देता।
सरकार की मंशा पूरे देश में एकसाथ चुनाव करने की है और इसके लिए बाकायदा कमेटी भी बनाई गई है, इसलिए अब सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जब जम्मू कश्मीर और हरियाणा में चुनाव कराए जा रहे हैं, तो उनके साथ महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव क्यों नहीं कराए जा रहे? आखिर इन राज्यों में भी आने वाले दिनों में चुनाव होने हैं। असल में भीतरखाने की खबर यह है कि कश्मीर में जो भी हो, हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा की वापसी की उम्मीद बहुत कम दिखाई दे रही है। झारखंड में तो अभी उसकी सरकार है ही नहीं। अलग-अलग चुनाव के पीछे एक डर भी है और एक रणनीति भी हो सकती है कि यदि हरियाणा में असफलता हाथ लगती है तो महाराष्ट्र में रणनीति बदली जाएगी।
स्वाभाविक तौर पर सत्तापक्ष कटघरे में खड़ा हो गया है, चार राज्यों के चुनाव एक साथ नहीं करा पा रहे तो पूरे देश में कैसे करा पाएंगे? अभी तो भाजपा को राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन करना है। महाराष्ट्र के पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है। देखना होगा कि उन्हें कमान दी जाती है या नहीं और यदि दी जाती है तो इसका महाराष्ट्र चुनाव में कितना लाभ भाजपा को मिलता है? यह बाद की बात है, फिलहाल तो जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की बहाली का इंतजार करना होगा। और उम्मीद की जानी चाहिए कि वहां हिंसा का दौर पूरी तरह से खत्म हो।
– संजय सक्सेना


