Editorial : मजबूरी की मौत…?

मैं कमाने के लिए गुजरात जा रहा हूं, एक महीने में लौट आऊंगा, परिवार में सबका ध्यान रखना। गुजरात जाने से पहले देवास के संदलपुर के रहने वाले राकेश ने अपनी मां शांताबाई से आखिरी बार यह बात कही थी। इसके चार दिन बाद उसकी मौत की खबर मिली। शांताबाई बेटे, पोती किरण और बहू डाली को याद करते हुए फफक पड़ती है।
संदलपुर की लालखेड़ी मोहल्ला भोपा कॉलोनी में भोपा समाज के करीब 15-20 घर हैं। सात-आठ? महीने पहले तक ये लोग वाहन से घूमकर कुकर और गैस सुधारने का काम करते थे। पहली बार गुजरात गए? और हादसे का शिकार हो गए। प्यारेलाल भोपा ने बताया, लखन मेरे काका गंगाराम का लडक़ा था। एक ही परिवार के छह लोग थे। लखन, उसकी पत्नी सुनीताबाई, बहन राधा और रुकमा, छोटा भाई अभिषेक, मां शायराबाई भी हादसे का शिकार हो गए। गंगाराम के परिवार में कोई नहीं बचा।
हादसे में देवास के खातेगांव के पंकज सांकलिया की भी मौत हो गई। पहले वह हरदा में पटाखा फैक्ट्री संचालक की गाड़ी चलाता था। धीरे-धीरे उसने पटाखे बनाना भी सीख लिया। 3-4 दिन पहले ही गुजरात की फैक्ट्री के मालिक के बुलावे पर वहां गया था।
संदलपुर के राकेश भोपा, उसकी पत्नी डाली बाई, बच्ची किरण (7) की मौत हो गई है। छोटी बेटी नैना (4) घायल है। राकेश के परिवार में पिता लकवाग्रस्त है। बड़े भाई संतोष को गंभीर बीमारी है। हाल ही में मां शांताबाई के पेट से 5 किलो की गांठ निकाली गई थी। इन सभी के इलाज के लिए परिवार ने कर्ज लिया था। शांताबाई ने बताया कि बेटे को बाहर काम पर जाने से मना किया था। लेकिन उसका कहना था कि कर्ज चुकाने के लिए ज्यादा कमाई करनी होगी। राकेश पिछले साल हरदा की पटाखा फैक्ट्री में हुए विस्फोट से बच गया था। उस दिन वह फैक्ट्री नहीं गया था। इन्हें हरदा की घटना का हश्र मालूम था, लेकिन मजबूरी भी तो कोई चीज होती है। मां गीताबाई बोली- होली पर बेटे सत्यनारायण का निधन हो गया था। उसकी तेरहवीं के लिए रुपए नहीं थे। पोते समेत परिवार के 11 लोग काम करने गुजरात गए थे। वहां से लौटते तो बेटे की तेरहवीं करती, लेकिन उसके पहले ही पूरा परिवार खत्म हो गया।
एक हजार पटाखे बनाने पर पांच सौ रुपये की कमाई होती थी। आर्थिक परेशानी और कर्ज के बोझ तले दबा संदलपुर का भोपा परिवार पटाखे बनाने के काम में लग गया। संदलपुर और हंडिया के ये सभी लोग 22-23 मार्च को हाटपीपल्या से 10 किलोमीटर आगे देवगढ़ पर स्थित पटाखा फैक्ट्री में काम करने गए।
वहां किसी महिला के संपर्क में आए। उस महिला ने इन्हें ज्यादा मजदूरी दिलाने की बात कहकर गुजरात चलने को कहा। 28 मार्च को सभी गुजरात के लिए निकल गए। संदलपुर के आठ लोग चार दिन पहले पहली बार ही गुजरात गए थे।
अब ये कहानी हो गई है। लेकिन उनका क्या, जिनका पूरा परिवार खत्म हो गया? कर्ज उतारने से लेकर तेरहवीं करने तक का मुद्दा भी मौतों के साथ कराहों में बदल गया। कहते हैं न, मौत बहाना तलाशती है।  हरदा में जो बचे थे, वो गुजरात में काल के शिकार हो गए। और जहां तक पटाखा और विस्फोटकों के अवैध निर्माण और व्यापार का सवाल है, तो वो हमारी इस भ्रष्ट, कमजोर और अराजक व्यवस्था की देन ही कह सकते हैं।
हरदा ब्लास्ट में ग्यारह लोगों की मौत होने का दावा किया गया था। दो लापता हो गए थे। अब यहां इक्कीस लोगों की मौत हुई है। न तो हरदा की घटना के पीडि़तों का अब तक न्याय मिल पाया है और न ही इस ताजा दुर्घटना को लेकर कोई बड़ी उम्मीद। बस सरकारों की तरफ से मिली राहत से संतोष करना होगा। इसी तरह से अवैध पटाखा फैक्ट्रियां चलती रहेंगी और लीलती रहेंगी मजबूर जिंदगियों को।

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