Editorial
जलवायु पर और गंभीर होना पड़ेगा

ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही कभी भी बारिश हो जाना, मौसम में बार-बार अचानक परिवर्तन का दौर तेज हो जाना पूरी दुनिया के लिए कतई ठीक नहीं है। तभी तो जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। लेकिन जलवायु परिवर्तन को लेकर विकसित और अमीर देशों का रवैया ज्यादा सकारात्मक नहीं है, यह बड़ी चिंता है।
संदर्भ की बात करें तो पिछले साल बाकू में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन यानि सीओपी29 में विकसित देशों ने, विकासशील देशों में जलवायु के लिए प्रतिवर्ष 300 अरब डॉलर जुटाने पर सहमति जताई थी। भले ही यह आंकड़ा पिछले लक्ष्य से तीन गुना अधिक है, लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह जलवायु के लिए जरूरी वित्त की कमी पूरी करने के लिए अभी भी बहुत कम है।
असल में विशेषज्ञ मानते हैं कि आज की चुनौती 2015 में पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के समय से कहीं जटिल है। तब 100 अरब डॉलर का आंकड़ा निवेश की जरूरतों का विश्लेषण किए बिना तय किया गया था। लेकिन सीओपी29 को वास्तविक लागतों का अनुमान लगाना था। जलवायु वित्त पर स्वतंत्र उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ समूह की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि विकासशील देशों (चीन को छोडक़र) को 2035 तक 2.4-3.3 ट्रिलियन डॉलर के जलवायु वित्त की जरूरत होगी।
इस समिति में भारत से मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी शामिल थे और उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है। वो कहते हैं कि इसका लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा बचत बढ़ाकर और सार्वजनिक घाटे को कम करके घरेलू स्तर पर हासिल किया जा सकता है। फिर भी 2030 तक 1 और 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर की कमी बनी रहेगी। इस अंतर को पाटने के लिए बाहरी वित्तपोषण जरूरी है।
गंभीर बात यह है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले सम्मेलन में वित्तपोषण की कमी को तो स्वीकार किया गया, लेकिन इस बात पर सहमति नहीं बन पाई कि इसकी पूर्ति कैसे हो सकती है। विकासशील देशों ने इस पर जोर दिया कि सार्वजनिक फंड की कमी को पूरा करने के लिए विकसित देशों को आगे आना चाहिए, दूसरी ओर अमीर देशों ने सालाना केवल 300 अरब डॉलर जुटाने की पेशकश कर डाली। साथ में एक शर्त भी जोड़ दी कि वे सीधे वित्त के प्रावधान की गारंटी नहीं दे रहे, बल्कि धन जुटाने में अग्रणी भूमिका अवश्य निभाएंगे।
विशेषज्ञों का कहना है कि 2035 तक 650 अरब डॉलर की फंडिंग की कमी को इक्विटी और ऋण सहित निजी निवेश से पूरा किया जा सकता है। लेकिन यहां भी सब एकमत नहीं रहे। जहां विकसित देशों ने बजट पर दबाव को कम करने के लिए निजी पूंजी की बात कही, तो विकासशील देशों ने सार्वजनिक वित्तपोषण पर जोर दिया।
सही बात तो यह है कि अधिकांश विकासशील देश निजी निवेश को आकर्षित करने में संघर्ष करते हैं, इसलिए वे अनुदान और ऋणों पर निर्भर रहते हैं। इन सार्वजनिक संसाधनों को कम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं को देने का मतलब है कि मध्यम आय वाले देश निजी पूंजी पर और निर्भर हो जाएंगे। यहां खास बात यह हैकि
वैश्विक जलवायु प्रयासों के प्रति ट्रम्प प्रशासन का रवैया एक तरह से शत्रुतापूर्ण रहा है। साथ ही वह जीवाश्म ईंधन के विस्तार पर जोर दे रहे हैं, जो साफ तौर अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त को कमजोर करेगा। अहलूवालिया यदि ये कहते हैं कि सम्मेलनों में हर साल हजारों अधिकारियों, बिजनेस लीडर्स और गैर सरकारी संगठनों को इक_ा करने से जरूरी है कि हम जलवायु संकट पर ध्यान केंद्रित करें और ऐसे निर्णय लें, जिनके ठोस नतीजे निकलें।
जलवायु संकट लगातार बढ़ रहा है। हम भारत में इस गर्मी के मौसम में अचानक भीषण गर्मी पड़ते देख रहे हैं और गर्मी बढ़ते ही बादलों का आना और बेमौसम बारिश या ओलावृष्टि भी देख रहे हैं। पहले ये होता था कि लगातार गर्मी पड़ती थी और गर्मी के मौसम के आखिरी दिनों में मानसून का आगमन होता था। यह मानना ही होगा कि इंसान के जीवन के लिए जलवायु परिवर्तन के मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए सभी देश काम करें।
– संजय सक्सेना


