Editorial
इन डाक्टरों पर हत्या का मामला दर्ज होगा?

मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में एक-दो नहीं, नौ बच्चों की किडनी फेल होने से मौत हो गई है और इसके पीछे वो कफ सिरप कोल्ड्रिफ और नेक्सा डीएस सामने आए हैं, उन्हें प्रतिबंधित किया जा चुका है। इसके बावजूद प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले सरकारी डॉक्टरों ने भी अपने पर्चे में लिखा था।
चौंकाने वाली बात यह भी है कि ये आम दवाएं नहीं थीं, जो हर मेडिकल स्टोर पर उपलब्ध हों। इन दवाओं को शहर के चुनिंदा और बड़े शिशु रोग विशेषज्ञ ही लिख रहे थे और यह सिरप उन्हीं के प्राइवेट क्लिनिक के आसपास स्थित गिने-चुने मेडिकल स्टोर्स पर बहुतायत में सप्लाई की जा रही थी। सवाल तो उठेगा ही, क्या इन चिकित्सकों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया जाएगा? क्या प्रतिबंधित दवाएं बेचने और लिखने वालों के खिलाफ साजिश का मामला दर्ज होगा?
बच्चों की किडनी फेल होने के मामले में जो जानकारी सामने आई है, उसके अनुसार खांसी के सिरप में व्हीकल इंडस्ट्री में इस्तेमाल होने वाला केमिकल एथिलीन ग्लाइकॉल और डाइएथिलीन ग्लाइकॉल मिला हुआ था। यह वही जहरीला केमिकल है, जिसे गाडिय़ों के कूलेंट और एंटी फ्रीज में इस्तेमाल किया जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इसकी थोड़ी-सी मात्रा भी किडनी और दिमाग को बुरी तरह नुकसान पहुंचा देती है।
एक अखबार ने इसकी तफ्तीश की। उसके संवाददाता को सीनियर नेफ्रोलॉजिस्ट ने बताया कि बच्चों की पेशाब बननी बंद हो गई थी। यह स्थिति एथिलीन ग्लाइकॉल और डाइएथिलीन ग्लाइकॉल की वजह से हुई। दोनों कंपाउंड खांसी की सिरप में मिलावट के कारण बच्चों के शरीर में पहुंचे। इससे उनकी किडनी खराब हुई और मौत हो गई।
नेफ्रोलॉजिस्ट का कहना है कि सामान्य रूप से खांसी की दवाओं में प्रोपलीन ग्लाइकॉल और सॉर्बिटॉल जैसे कंपाउंड मिठास और स्वाद देने के लिए डाले जाते हैं। कई बार इनकी जगह जानबूझकर या गलती से एथिलीन ग्लाइकॉल डाल दिया जाता है। इसकी भी प्रॉपर्टी मीठापन और ठंडक देने की होती है, लेकिन यह शरीर के लिए बेहद खतरनाक है। डीईजी या ईजी से प्रभावित मरीजों के लिए एकमात्र कारगर इलाज फोमेपिजोल है। यह दवा अल्कोहल डिहाइड्रोजनेज(्रष्ठ॥) एंजाइम को रोकती है, जिससे शरीर में जहरीले मेटाबोलाइट्स नहीं बन पाते। इसके साथ ही डायलिसिस, आईवी फ्लूइड्स और वेंटिलेटर सपोर्ट जैसी चिकित्सा भी दी जाती है।
यह कोई पहला मामला नहीं है। वेस्ट अफ्रीकी देश गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में भारत निर्मित खांसी की दवाओं से सैकड़ों बच्चों की मौत हो चुकी है। उस समय भी यही जहरीले केमिकल जिम्मेदार पाए गए थे। इन घटनाओं ने भारतीय दवा उद्योग की अंतरराष्ट्रीय छवि को गहरी चोट पहुंचाई थी। मेडिकल टीचर्स एसोसिएशन ने कुछ महीने पहले ही अमानक दवाओं का मुद्दा उठाया था। डॉक्टरों का कहना है कि वेरिफाइड और प्रमाणित कंपनियों पर भरोसा करना ही सुरक्षित है। परिवारों को मेडिकल स्टोर से सीधे खांसी की सिरप खरीदकर बच्चों को देने से बचना चाहिए और केवल डॉक्टर द्वारा लिखी दवाओं पर भरोसा करना चाहिए।
हिमाचल प्रदेश के सोलन और बद्दी क्षेत्र को घटिया और सस्ती दवाओं के उत्पादन का गढ़ माना जा रहा है। यहां से बनी दवाएं बड़े पैमाने पर बाजार में पहुंच रही हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इन इलाकों से निकलने वाली कंपनियों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। विशेषज्ञों का कहना है कि वाहन के कूलेंट में मौजूद एथिलीन ग्लाइकॉल का सेवन कर आत्महत्या के मामले भी सामने आए हैं।
बार-बार ये मुद्दा उठता है। तमाम दवाओं पर रोक भी लगाई जाती है। लेकिन इसके बावजूद नाम बदलकर उन फार्मूलों वाली दवाएं बाजार में आ जाती हैं। इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? औषधि नियंत्रण के लिए जो विभाग बनाया गया है, उसका काम क्या है? उसकी जिम्मेदारी क्या है? स्वास्थ्य विभाग में जो अफसर बैठे हैं, उनकी कोई जिम्मेदारी इस तरह की है क्या? और फिर, जो डाक्टर सरकारी अस्पतालों में पदस्थ हैं, वो प्रतिबंधित दवाएं कैसे लिख रहे हैं? इन सवालों के जवाब तो आने ही चाहिए। यदि फिर भी हम नहीं जागे, तो अभी केवल सात चिराग बुझे हैं, हमारी पूरी पीढ़ी को खत्म करने की साजिश भी हो सकती है, हम सोते ही रह जाएंगे।


