Editorial:
क्या वाकई हम बेरोजगार युवाओं को चीप-लेबर में बदल दे रहे हैं…?

केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल एक स्टार्टअप-सम्मेलन में ऐसी टिप्पणी कर दी है, जिसने देश में बड़ी बहस छेड़ दी है। और यह वर्तमान परिवेश में एकदम उचित भी जान पड़ती है। उन्होंने भारतीय स्टार्टअप के उदय की प्रशंसा की थी, लेकिन साथ ही डीप-टेक और अत्याधुनिक इनोवेशन पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था।
उन्होंने कहा, हम फूड डिलीवरी ऐप्स पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं और बेरोजगार युवाओं को चीप-लेबर में बदल दे रहे हैं, ताकि अमीर लोग अपने घर से बाहर जाए बिना अपना फूड पा सकें। उनकी बात में दम है। भारत में विशेष प्रकार की टेक-कंपनियों का उदय हुआ है, जिन्हें पीएसआर यानि पुअर सर्विंग रिच कंपनियां कहा जाता है।
सही मायने में देखा जाए तो देश में दो तरह की आबादी है। एक समृद्ध जनसंख्या, जिसके पास खर्च करने योग्य पैसा और सुविधा के लिए बढ़ती भूख है। और दूसरी, बहुत बड़ी और अपेक्षाकृत अकुशल आबादी, जो इस मांग को पूरा करने के लिए कम या बहुत ही कम वेतन पर काम करने को तैयार है। भारत में इन दोनों ही वर्गों के लोगों की कमी नहीं है।
गोल्डमैन सैक्स के एक अध्ययन का संदर्भ देखें, तो उसके अनुसार लगभग 6 करोड़ भारतीय सालाना 10,000 डॉलर से अधिक कमाते हैं। ये ही लोग ई-कॉमर्स, फूड डिलीवरी और अन्य सुविधा-केंद्रित सेवाओं के मूल उपभोक्ता हैं। अनुमान है कि यह संख्या 2027 तक बढक़र 10 करोड़ तक हो जाएगी। हालांकि इसमें वो वर्ग भी शामिल है, जो कर्ज लेकर मध्यम वर्ग में शामिल होकर सुविधाभोगी तो बन जाता है, लकिन कर्ज के जाल से कभी मुक्ति नहीं पा पाता।
जहां तक सस्ते श्रम यानि चीप-लेबर का मुद्दा है, तो भारत में असमानता की स्थिति नामक रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि प्रति माह 25 हजार रुपए से अधिक कमाने वाले लोग वेतन पाने वाले शीर्ष 10 प्रतिशत की आबादी में आते हैं। इसलिए, 15,000-20,000 रुपये का मासिक वेतन अभी भी आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए आकर्षक है। और करोड़ों लोग तो पांच हजार रुपए तक के मासिक वेतन पर भी काम करने के लिए मजबूर हैं। 1.4 अरब की आबादी में करोड़ों लोग इन वेतनों पर काम करने के लिए तैयार हैं।
यदि हम मान लें कि महीने में 25 कार्य दिवस होते हैं तो 20,000 रु. प्रतिमाह के हिसाब से 800 रु. प्रतिदिन का वेतन हुआ। 10 घंटे के कार्य दिवस के लिए 80 रु. प्रतिघंटा। यह 1 डॉलर से भी कम है। सालाना 10,000 डॉलर से ज्यादा कमाने वाला ग्राहक आसानी से ऐसे 50 से 100 ऑर्डर दे सकता है। इसमें सभी को लाभ है। डिलीवरी करने वाला कर्मचारी औसत से ऊपर का वेतन कमाता है। अमीर लोग मिनटों में ही अपने दरवाजे पर डिलीवर किए गए फूड का मजा लेते हैं। टेक फाउंडर्स को सफलता मिलती है और उनमें से कई तो अरबपति भी बन जाते हैं।
लेकिन, अर्थ विशेषज्ञ इस कार्य को अच्छे श्रम में शामिल नहीं करते। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने भारत की टेक-फर्मों से जो ऊंचे लक्ष्य रखने का आग्रह किया है, वह इसलिए उचित है, क्योंकि हम जुगाड़-टेक्नोलॉजी में तो माहिर हैं, लेकिन हम आज भी बड़े पैमाने पर कॉमर्शियल इनोवेशन नहीं कर पा रहे हैं। हम विकसित देशों की टेक्नोलाजी को अपनाने में ज्यादा विश्वास करते हैं, कह सकते हैं कि नकल करने में। हमारे यहां शोध और अनुसंधान पर बहुत जोर नहीं है।
कुल मिलाकर केवल बेहतर खाना और फूड डिलीवरी ही बेहतर व्यवसाय में शामिल नहीं करना चाहिए। हमें उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में नई खोज, नये अनुसंधान करने चाहिए। और हां, एक बात और, यदि हमें चीप लेबर यानि सस्ते श्रमिक मिल रहे हैं, तो फिर हम चीन से सस्ता और बेहतर उत्पाद बनाने में सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? जो कच्चा माल भारत से ही चीन जाता है, उसी का तैयार माल हमें हमारे देश के उत्पाद से सस्ता क्यों मिलता है? इस पर तो विचार करना ही होगा। हम अगर ट्रिलियन इकानामी की बात करें, यदि ऊपर चढ़ते शेयर बाजार पर फक्र करें, तो हमें इस पर विचार भी करना होगा कि हम पुर्जे बाहर से मंगाकर अपने देश में असेम्बल करने को मेक इन इंडिया क्यों कहते हैं?

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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