सुदेश वाघमारे
कल एनडीटीवी ने बताया कि एक सर्वेक्षण में गालियाँ बकने में दिल्ली पहले पायदान पर पाया गया।मैं इस सर्वेक्षण से सहमत नहीं हूँ।दिल्ली में लोग पैसा बनाने में इतने मशगूल हैं कि उन्हें गालियाँ बककर अपना नुक़सान करने की ज़रूरत नहीं हैं। गालियाँ देने में भोपाल और बनारस अव्वल रहे हैं और रहेंगे। काशीनाथ सिंह ने अपनी किताब ‘ काशी का अस्सी’ में ठेठ बनारसी गालियों का ठाठ खड़ा किया है।गालियाँ बड़े कलेजे और साफ़ दिल वाला ही बक सकता है। पुराने भोपाल में गाली देने की रिवायत रही है। बुजुर्गों से सुना है भोपाल में गालियाँ इतनी आमफ़हम थीं कि बेगम भोपाल ने एक आदेश निकाल रखा था कि आईपीसी की गाली बकने पर अपराध दर्ज होने वाली धारा भोपाल में लागू नहीं होगी। उस्ताद शागिर्द को, हकीम मरीज को, ग्राहक दुकानदार को,बाप बेटे को, ताँगा वाला सवारी को, खाविन्द शरीके- हयात को और अफसर अपने अहलकारों को गालियाँ देते थे। जैसे कुकर सीटी मारकर ठंडा हो जाता है वैसे ही गाली बककर लोग शांत हो जाते थे। भोपाल के पास नर्मदा किनारे एक नंगे साधु हुए हैं। जिसको वे गाली दे दें उसका काम हो जाता था। भोपाल में ही एक दादा खैरियत हुए हैं जिनसे खैरियत पूछते ही वो पूछने वाले की माँ, बहन, मौसी, बुआ सबसे जिस्मानी रिश्ता जोड़ लेते थे। ये बात अलहदा है कि यदि कोई ख़ैरियत नहीं पूछे तो उस दिन बड़े उदास हो जाते थे।
एक बार मैं अपनी थीसिस के सम्बन्ध में उपकुलपति के पास बैठा हुआ था। बाहर एक छात्र नेता दरबान को गालियाँ बकता हुआ अन्दर जाने की जिद कर रहा था। अंदर आकर भी उसने गालियाँ बकना जारी रखा और कुलपति से पूछा कि आप किस विषय के विशेषज्ञ हो। कुलपति ने उसे पानी पिलवाकर ठंडा किया और कहा कि तुम जो गालियाँ दे रहे हो मैं उसी विषय का ज्ञाता हूँ। कुलपति जी भाषाविज्ञान के विद्वान थे। उस छात्र के जाने के बाद कुलपति ने बतलाया कि भोपाल में नेहरूजी ने HEL खोल दिया और भोपाल के बाशिंदे केवल मजदूर बन पाये। दूसरी ओर टीटीनगर चार इमली जैसी नई रिहायश बनीं जिसमें टाट का पर्दा टांगे किसी भोपाली को कुछ हक नहीं मिला। ये आक्रोश गाली के रूप में हमेशा उसकी जुबान पर बना रहता है। साठ- सत्तर के दशक में पुराने भोपाल के लोग हर दक्षिण भारतीय को मद्रासी कहते थे और मद्रासी अकेले पुराने भोपाल में आने से डरते थे।
भोपाल पर किताब लिखने वाले स्व श्याम मुंशी ने श्मशान घाट में गालियों का अद्भुत नजारा लिखा है। उनके शब्दों में ही पढ़िये-
“ सांवल दास की मौत पर उनके एक दोस्त मदन महाराज को ऐसा मातम करते देखा जो उससे पहले और न उसके बाद कभी देखा। मदन महाराज सांवल दास की चिता के सामने बैठकर जारो-क़तार रोते हुए गालियाँ बक रहे थे: अरे तेरी माँ .. की दे गया धोखा, वाह मादर.. बड़े वादे किये थे साथ देने के और निकल गया चुपचाप तेरी माँ की.. वगैरा वगैरा।दोस्ती और मातम का यह रूप भी होता है मैंने पहली बार देखा था।”
मेरा चार साल का नाती आयांश मेरे साथ स्वीमिंग सीखने जाता था। वहाँ उसके पच्चीस नानू हो गये। सब उसे कुछ न कुछ सिखाने लगे। हम लोग दस रूपये की चाय पीते और यार लोग उसे सौ रूपये की चोको चॉकलेट पिलाते। एक प्रसिद्ध पत्रकार मित्र ने गुपचुप उसे गालियाँ देना सिखा दिया। पुलिस मेस में एक शादी में वे पत्रकार मित्र उसे मिल गये। नाती राजा उन्हें देखते ही मित्रवत चिल्लाया – “गाँ..नानू”। पत्रकार नानू को काटो तो खून नहीं।
वो जो गाली थी वो बच्चों की ज़ुबाँ तक पहुँची
आपके शहर में तालीम यहाँ तक पहुँची।
अच्छा हुआ जो आपने दीं मुझको गालियाँ
किसी तरह ग़ुबार तो दिल का निकल गया।
(शायर नामालूम)
सुदेश वाघमारे की फेसबुक वाल से साभार
१५ जुलाई २०२५.