Civil : देश में सिविल इंजीनियरिंग का संकट — मुंबई से बिहार तक पुलों और सड़कों की हालत ने बढ़ाई चिंता, गुणवत्ता और तकनीक पर उठ रहे सवाल…

मुंबई. पलावा फ्लाईओवर को उद्घाटन के सिर्फ सात दिन बाद ही ट्रैफिक के लिए बंद करना पड़ा. मुंबई के कल्याण में बने इस अहम सड़क ढांचे को तैयार होने में सात साल लगे थे. सड़क किनारे गिट्टी के ब्लॉक, बुलडोज़र और जेसीबी अब दोबारा काम में जुट गए हैं — नई बनी सड़क को तोड़कर फिर से डामर बिछाया जा रहा है. यह पुल अब भारत के अधूरे या गलत तरीके से बने इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की लंबी सूची में एक और नाम जोड़ चुका है। यहाँ मध्य प्रदेश का उल्लेख भी जरूरी है, जहाँ की राजधानी भोपाल में ही एक भी पुल न तो तकनीकी रूप से सही बना है और ना ही सुविधा के हिसाब से बेहतर।
देश में पुलों को अजीब तीखे मोड़ों के साथ बनाया जा रहा है, कई गिर रहे हैं, हाइवे लोगों की बालकनी को काट कर निकाले जा रहे हैं. फ्लाईओवर मुड़ रहे हैं. भारत सिविल इंजीनियरिंग के संकट से जूझ रहा है, अपनी इंफ्रास्ट्रक्चर महत्वाकांक्षाओं के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहा है.
देश की वित्तीय राजधानी मुंबई, जो अरबों डॉलर इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार पर खर्च कर रही है, इस क्षेत्र की कमियों की सबसे बड़ी मिसाल बन गई है. मुंबई मानो बिखर रही हो और इसके केंद्र में है कमज़ोर सिविल इंजीनियरिंग. अंधेरी का गोखले ब्रिज लंबे वक्त बाद खुला, लेकिन उसका एलाइनमेंट गलत निकला. अटल सेतु — जिसे 100 साल तक टिकने वाला बताया गया था पर पैचवर्क पहले ही शुरू हो चुका है. वहीं, नेशनल हाइवे 66 का निर्माण 2008 से ही जारी है, जिससे आसपास के कस्बों और गांवों में लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं.
भारत ज़मीनी स्तर से खुद को फिर से बना रहा है. शानदार एक्सप्रेसवे, हाइवे और फ्लाईओवर पूरे देश में बन रहे हैं. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय इंफ्रास्ट्रक्चर में हज़ारों करोड़ रुपये झोंक रहा है. 2024-25 में अकेले मंत्रालय का पूंजीगत खर्च 3.1 लाख करोड़ रुपये था — जो 2013-14 में हाइवे और पुलों पर हुए 53,000 करोड़ रुपये के खर्च से करीब 5.7 गुना ज़्यादा है, लेकिन इस तेज़ निर्माण के साथ गुणवत्ता में वैसा सुधार नहीं हुआ.
फिलहाल करीब 580 हाइवे प्रोजेक्ट्स, जिनकी कीमत 4 लाख करोड़ रुपये है, देरी का सामना कर रहे हैं — ज़्यादातर ज़मीन अधिग्रहण की वजह से और जब भी सवाल उठते हैं, तो निगाहें भारत के सिविल इंजीनियरों पर टिक जाती हैं. इनकी योग्यता पर सवाल उठते हैं. जो इंजीनियर खुद को “नेशन बिल्डर्स” कहते हैं, वे एक ऐसे क्षेत्र में काम कर रहे हैं जहां भ्रष्टाचार गहराया है, काम के घंटे बेहद लंबे हैं, तनख्वाह कम है और करियर में आगे बढ़ने के मौके बेहद सीमित. कई सिविल इंजीनियरों ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि सिविल इंजीनियरिंग इसकी सबसे शोषणकारी शाखा बन चुकी है.
सरकारी एजेंसियों द्वारा दिए जाने वाले एल-1 कॉन्ट्रैक्ट्स (लोवेस्ट बिडर को काम देना) भी भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर की गुणवत्ता को और नुकसान पहुंचाते हैं. एल1 कॉन्ट्रैक्ट का मतलब है — तकनीकी योग्यता तय होने के बाद सरकार काम सबसे कम बोली लगाने वाले को दे देती है.
ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन के आंकड़ों के मुताबिक, 2016-17 में 6.3 लाख छात्र सिविल इंजीनियरिंग और संबंधित कोर्स में नामांकित थे. 2021 तक यह संख्या घटकर 4.89 लाख रह गई — जो अन्य इंजीनियरिंग शाखाओं की तुलना में सबसे बड़ी गिरावट है.
सीआरआरआई के डायरेक्टर और इंडियन रोड कांग्रेस के अध्यक्ष मनोरंजन परिडा ने कहा, “अचानक से हाइवे को बहुत अहमियत मिल गई है. देखिए, हम 2 लाख किलोमीटर हाइवे बनाने जा रहे हैं — यह बहुत बड़ा आंकड़ा है. विकास की रफ्तार बहुत तेज़ है, शायद इसी वजह से हमारे मटेरियल की क्वालिटी और क्वांटिटी, हमारी विशेषज्ञता और क्षमता ज़रूरत के हिसाब से मेल नहीं खा पा रही. डिमांड और सप्लाई में बड़ा गैप है.”
सब-टेंडर पर सब-टेंडर
डोंबिवली में रहने वाले इंजीनियर अमित सात साल से शिलफाटा–कल्याण फ्लाईओवर के बनने का इंतज़ार कर रहे थे. अगर यह वक्त पर बन जाता, तो काकीनाका (कल्याण) से नवी मुंबई के बीच की यात्रा दो घंटे से घटकर सिर्फ 45 मिनट में पूरी हो जाती.
अमित ने कहा, “हर दिन नवी मुंबई से लौटते वक्त घंटों ट्रैफिक में फंसा रहता हूं. ये पुल तो शुरू से ही फेल होना तय था. पहले दिन से इसमें दिक्कतें थीं.”
पलावा ब्रिज का उद्घाटन दरअसल इस बात का प्रतीक बन गया कि भारत के सिविल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में क्या-क्या गड़बड़ियां हैं — देरी, ठेकेदारों के बार-बार बदलने और घटिया काम की एक लंबी कहानी.
सात साल की देरी, विरोध और राजनीतिक दबावों के बाद जब पुल आखिरकार खोला गया, तो कुछ ही घंटों में उस पर गड्ढों से भरी, ऊबड़-खाबड़ और फिसलन भरी सड़क सामने थी.
लोगों के बढ़ते दबाव के चलते पुल को बिना ज़्यादा कार्यक्रम के और बिना कॉन्ट्रैक्टर से ‘कम्प्लीशन सर्टिफिकेट’ लिए ही खोल दिया गया. सड़क की खराब सतह की वजह से गाड़ियां फिसलने लगीं. उद्घाटन के दिन मुंबई की एक बारिश ही पुल की असली हालत दिखाने के लिए काफी थी
एमएसआरडीसी (MSRDC) के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “हमें राजनीतिक दबाव में आकर पुल को समय से पहले खोलना पड़ा.”
अंधेरी के गोखले ब्रिज की कहानी — जो अंधेरी ईस्ट और वेस्ट को जोड़ने वाला अहम रेलवे ओवरब्रिज है — साफ दिखाती है कि भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर सिस्टम में लापरवाही किस गहराई तक घुस चुकी है. न मौतें कुछ बदलती हैं, न देरी से कोई सीख ली जाती है.
2018 में गोखले ब्रिज गिर गया था, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी. सात साल बाद जब इसे दोबारा बनाया गया और खोला गया, तो अंधेरी के लोग खुशी से झूम उठे, लेकिन यह खुशी ज़्यादा देर नहीं टिक पाई. नया पुल अपने जुड़ने वाले बरफीवाला फ्लाईओवर से 6.6 फीट गलत एलाइनमेंट में था, जिससे वह बेकार साबित हुआ. सोशल मीडिया पर इस पर मीम्स की बाढ़ आ गई. अमूल ने भी ‘Pull ko push nahi kiya?’ लिखकर मज़ेदार विज्ञापन बनाया (Pull यानी पुल पर शब्दों का खेल).
मुनाफे के लिए क्वालिटी की बलि
पलावा ब्रिज जैसे स्थानीय प्रोजेक्ट से लेकर अटल ब्रिज जैसे विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट तक — क्वालिटी की समस्या मानो स्थायी बन गई है. इन मामलों ने सरकारी बिल्डरों पर से जनता का भरोसा हिला दिया है. बिहार से बॉम्बे तक पुलों के ढहने की घटनाओं में एक ही धागा जुड़ा हुआ दिखता है — भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी और अव्यवस्था.पुणे के एक इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट इंजीनियर ने बताया कि ठेकेदार सबसे कम बोली लगाकर टेंडर जीतने की कोशिश करते हैं. इस प्रक्रिया में प्राइसिंग प्रेशर बढ़ता जाता है और हर स्तर पर कट लगने से क्वालिटी में समझौता करना ही एकमात्र रास्ता बचता है.
सड़क परिवहन मंत्रालय ने 2019 से 2024 के बीच 42 पुलों के ढहने की जानकारी दी.
2016 में, महाड नदी पर पुल ढहने से 42 लोगों की मौत हुई. सरकार ने 1988 के बाद पहली बार 2016 में पुलों की नियमित जांच और रखरखाव के दिशा-निर्देश संशोधित किए. आदेश दिया गया कि पुलों का निरीक्षण एक महीने के भीतर किया जाए, हर मानसून के बाद ऑडिट अनिवार्य हो और उम्र पूरी कर चुके पुलों की संरचनात्मक जांच की जाए.
सीएजी की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर 2016 तक महाराष्ट्र में 16,085 पुल थे, जिनमें से 657 की उम्र पूरी हो चुकी थी. इनमें से 100 से अधिक पुलों का संरचनात्मक ऑडिट नहीं हुआ.
सीएजी ने नोट किया, “पुल निर्माण और रखरखाव के लिए कोई रणनीतिक योजना नहीं थी. निर्माण प्रस्तावों के अनुसार ही किया गया.”
बिहार अब पुल ढहने की समस्या का केंद्र बन गया है. 2025 में 20 दिनों में 12 पुल ढहने की घटनाएं हुईं. ‘ब्रिज हेल्थ इंडेक्स’ भी पेश किया गया. सितंबर में नालंदा में रेलवे ओवरब्रिज का हिस्सा भी ढह गया, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले में था.





