Vulture: दस लाख का एक गिद्ध…

सुदेश वाघमारे
बहुत कम लोगों ने नोटिस किया होगा कि कैप्टिव प्रजनन करवाकर भोपाल में खुले जंगल में गिद्ध छोड़े गये हैं। वैसे तो भारत में नौ केंद्र हैं परन्तु हरियाणा का पिंजोर, बंगाल का राजा भातखावा, भोपाल वनविहार का मेंडोरा और उत्तर प्रदेश का महाराजगंज ज्यादा सक्रिय माने जाते हैं।
लगभग तीस साल पहले यह नोटिस किया गया कि पूरे एशिया में जानवर मरने के बाद सड़ते रहते हैं और उन्हें तीन-चार घंटे में चट कर जाने वाले गिद्ध गायब हैं। पता चला कि गिद्दों की ९९.९% आबादी ख़त्म हो चुकी है और पशुओं के उपचार में काम आने वाली दवा डाइक्लोफेनेक उसके लिए जिम्मेदार है। ऐसे पशु जिन्हें यह दवा दी गई हो और वे मर जायें तो उन्हें खाने पर इस रसायन के कारण गिद्ध के आंतरिक अंग क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और वे मर जाते हैं। तब दुनिया भर में हलचल हुई और प्रकृति के इस कथित कुरूप जीव को बचाने के प्रयास हुए। सरकार को ही दवा प्रतिबंधित करने में बरसों लगे और उसके बाद भी नेपाल से बिहार के रास्ते दवा की तस्करी होती रही। अल्प मात्रा में इसे मनुष्यों को भी दर्द निवारक के रूप में दिया जाता था तो बड़े रूप में वहाँ से भी पशुओं को दी जाती रही।किस्सा कोताह यह कि गिद्ध मरते ही रहे।वह अलग और विस्तार से लिखने की कहानी है।
भोपाल और मध्य भारत में गीदगढ़, चीलपाठा, चीलखेड़ा नाम के अनगिनत नाम हैं जहाँ बड़ी संख्या में गिद्ध मिलते थे। जब ये विलुप्ति के कगार पर पहुँच गये तब उनकी विभिन्न प्रजातियों की तरफ़ ध्यान गया। मध्य भारत में निम्न चार प्रकार के गिद्ध प्रमुखता से मिलते हैं-
१. long billed vulture लंबी चोंच वाला गिद्ध
२. white backed vulture सफेद पीठ गिद्ध
३. king vulture राज गिद्ध लाल गर्दन वाला
चौथा वाला ईजिप्शियन वल्चर अभी भी कचरों के ढेर पर विरूपित मुर्गी के समान दिखाई पड़ता है जो तुलनात्मक रूप से थोड़ी अधिक संख्या में है। वैसे देसी- प्रवासी और भी दस बारह हैं परन्तु जनता जनार्दन इन चार से प्यार कर ले तो उनके दिन बहुर जायें।
गिद्धों से जुड़ी रिसर्च चौकाने वाली हैं। गिद्धों के अभाव में कुत्ते मृत पशु खा रहे हैं और आक्रामक होकर मनुष्यों पर हमला कर रहे हैं। गिद्धों के अभाव में सड़े हुए मृत पशुओं से निकलने वाले रोगाणु कैंसर और त्वचा रोगों तथा एलर्जी को जन्म दे रहे हैं। वैसे तो हम रामायण की बजह से आदर से उन्हें जटायु कह देते हैं परन्तु उतनी ही शिद्दत के साथ उनके खात्मे पर उतारू हैं।
एक वल्चर सेंटर को बनाने, उसके विभिन्न आयामों के रख रखाव, वाहन, माँस,प्रोटोकॉल, वैज्ञानिकों,दवाओं, कैप्टिव प्रजनन के ख़र्चों को जोड़ा जाये तो दो -तीन दशक में दहाई की संख्या में पैदा होने वाले एक गिद्ध का खर्चा दस लाख से अधिक बैठेगा। डाइक्लोफ़ेनेक विहीन मांस उपलब्ध कराने के लिये वल्चर रेस्टोरेंट भी खोले गये हैं ।कैप्टिव गिद्ध भी खुले ईकोसिस्टम में कितना कारगर होगा यह देखने के लिये ही उन्हें छोड़ा गया है और सफलता नेपथ्य में छुपी हुई है। आपको नहीं लगता कि हम अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारकर लहूलुहान हो रहे हैं और फिर अपने उपचार के लिए महंगा इलाज कर रहे हैं?
गिद्ध संरक्षण में भी देशी-विदेशी गिद्ध दृष्टि लगी हुई है मगर यहाँ वह विषय समीचीन नहीं है। आपकी रुचि हो तो आसपास कहीं वल्चर खोजिये या आसमान में थर्मल कॉलम में उड़ते हुए उन्हें निहार लीजिए। थर्मल कॉलम? इसे समझने के लिए मेरे पास आइये।
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं चार कौवों का दिन है
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना
लम्बा किस्सा थोड़े में किस तरह बताना ।
-भवानी प्रसाद मिश्र


फेसबुक वाल से साभार