सुदेश वाघमारे
भोपाल के वैभवशाली नवाबों का दौर जब खत्म हुआ तो उनके वारिसों ने महलों में होटल खोल लिये।उन्हें हेरिटेज होटल का दर्जा दिया गया। ऐसा ही एक होटल भोपाल में अस्सी के दशक में खुला जहाँनुमा पैलेस । फाइव स्टार सुविधाओं के साथ। लोग इम्पीरियल सेबरे जहाँ अमिताभ बच्चन की शादी हुई थी और राजीव गाँधी भी ठहरा करते थे उसकी बजाय जहाँनुमा में रुकने लगे।अंग्रेज आते और सेमिनार होते।होटल का मुख्य आकर्षण प्रवेश द्वार के पास रखा बाघ का फुल साइज का शरीर था जिसे ट्रॉफी कहते हैं।उसके शोल्डर पर गोली धँसी हुई थी और खाल पर गर्वोक्ति करती हुई इबारत लिखी थी
कि इसे फलाने नवाब ने फलाने सन में इस जगह से तक़रीबन छह किलोमीटर दूर मारा था। देशी- विदेशी दोनों पर्यटक बाघ के साथ फोटो खिंचाते। जंगल महकमे के सेमिनार भी होते। अफ़सरान खाते-पीते और फोटो खिंचाते।
एक बार पीते-पीते बैंगलोर से तशरीफ़ लाये एक ख़ुराफ़ाती साहब बोले कि ये टाइगर ग़लत रखा है। मैंने कहा आप सुरूर में ग़लत कह रहे हो, उसका रजिस्ट्रेशन नंबर का टैग वहीं लटका हुआ है। बोले कि यह बात नहीं है । ये टाइगर जिसके नाम रजिस्ट्रेशन है उसके घर में रखा जा सकता है होटल में नहीं। मैंने कहा लिखकर शिकायत कीजिए। बैंगलोर पहुंचकर लिखित में शिकायत उनके द्वारा मुख्यालय भेजी गई। खरामा- खरामा नीचे मेरे पास आई। मैंने नोटिस जारी किया। नवाब साहब नहीं माने। मैंने न्यायालय में चालान किया। वहाँ वन विभाग हार गया। टाइगर बदस्तूर वहीं नमूदार रहा,मैंने हाईकोर्ट में अपील कर दी।
एक बड़े ईमानदार और कठोर जज थे जस्टिस गुलाब गुप्ता। उनकी बैंच में केस लगा। जहाँनुमा की तरफ से पैरवी कर रहे थे तब के नामी वकील और वनमंत्री के शायद दामाद श्री विवेक तनखा।उनका बड़ा दबदबा था। बाद में वे महाधिवक्ता और राज्य सभा के सदस्य भी रहे। हमारे सहायक महाधिवक्ता एन वक्त पर गायब हो जाते। दो मिनट में लड़खड़ाते हुए जज साहब को मैं समझाता कि टाइगर की ट्रॉफी होटल में नहीं रखी जा सकती। नवाब फरमाते कि होटल ही उनका घर है और ट्रॉफी रखना जायज है। जज साहब ने फैसला दिया कि वन विभाग ड्रोन से तस्वीर खींचकर पेश करे।तब तक स्टेटस-को मेंटेन किया जाये। ट्रॉफी वन विभाग नहीं हटायेगा। मैंने दरख्वास्त की कि ट्रॉफी नहीं हटायेंगे मगर उसे ढँकने दिया जाये । जज साहब मान गये।लौटकर टाइगर को सफेद कपड़े से ढँक दिया। अब टाइगर कफन लपेटे पड़ा था और हर टूरिस्ट उसके बारे में दरयाफ़्त करता था। होटल मैनेजमेंट को ज़्यादा शर्मिदगी होती थी। तब के जमाने में आज की तरह ड्रोन सुलभ नहीं थे। आईआईएफएम के एक अधिकारी शौकिया ड्रोन उड़ाते थे । उनसे फोटो खिंचवाया।
तत्कालीन वन मंत्री, आला अफसर और जहाँ नुमा एक थे और मुझसे ख़ासे नाराज। मगर जज साहब ने मेरे पक्ष में फैसला दिया। जहाँनुमा के दरवाज़े से टाइगर हटा दिया गया। सुनते हैं कि किसी मौके पर जज साहब होटल में रुके थे और खुद मौका देखकर गये थे।जज साहब ने एक मौके पर मुझसे कहा कि एक मिनट में बताइये कि टाइगर को वहाँ से क्यों हटाया जाये। मैंने जवाब दिया कि “ट्रॉफी देखकर देशी- विदेशी टूरिस्ट को टाइगर का शिकार करने का टेम्पटेशन होता है और वो पूछता है कि क्या आज भी यहाँ से छह किलोमीटर दूर शिकार किया जा सकता है
खैर बात को शायद तीन दशक गुज़र गए होंगे। पुरस्कार स्वरूप मुझे भोपाल से हटा दिया गया। कुछ पुराने काग़ज़ात निकालकर कार्यवाही की धमकी भी अधिकारियों ने दी। वो तो आज मुख्यमंत्री श्री मोहन यादव वन अधिकारियों को पुरस्कार बांट रहे थे तो याद आया। बात केवल याददाश्त पर आधारित है इसलिये कुछ चीज़ें ग़लत भी हो सकती हैं। मगर जिन लोगों ने जहाँनुमा का वो टाइगर देखा हो तो जरूर बतायें।हाई कोर्ट का आदेश कानून माना जाता है इसलिये उस समय पूरे भारत में होटलों से वन्य प्राणियों की ट्रॉफियाँ हटा दी गईं।
मुझे ये फायदा हुआ कि जहाँनुमा का मैनेजर कई साल तक डिस्काउंट पर खिलाता- पिलाता रहा। लोग धीरे- धीरे सब भूल गये ।अब होटल में ट्रॉफी की जगह नवाबी दौर का सोफा लगा हुआ है। जहाँनुमा पहुंचकर जीवन थोड़ा सार्थक लगता है।
उसूलों पे आँच आये तो टकराना जरूरी है
जो जिंदा हो तो फिर जिंदा नज़र आना जरूरी है
मेरे ओंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना जरूरी है ।
-वसीम बरेलवी
फेसबुक वाल से साभार