जाड़ों की ‘ठंडी’ धूप में,आँगन
में लेट कर..

संजीव शर्मा
फिल्म ‘आंधी’ का मशहूर गीत ‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन…’, जरूर गुलज़ार साहब ने शिमला या इस जैसे किसी पहाड़ पर ठंड के दिनों में बैठकर लिखा होगा क्योंकि तभी वे लिख पाए कि ‘..जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर…’ या फिर ‘..बर्फ़ीली सर्दियों में किसी भी पहाड़ पर वादी में गूँजती हुई खामोशियाँ सुने..।’ दरअसल, ऐसी कल्पना वही कर सकता है जिसने पहाड़ों पर मौसम का अतरंगी मिजाज जिया हो और खासतौर पर जाड़ों की ठंडी धूप को महसूस किया हो। वैसे, गुलज़ार साहब ने काव्यात्मक रूप देने के लिए शायद नर्म धूप लिख दिया है लेकिन इसे नर्म नहीं बल्कि ठंडी धूप कहना ज्यादा बेहतर होगा।
इसकी वजह यह है कि शिमला जैसे पहाड़ी इलाकों में सर्दियों की जो धूप होती है, वह नर्म या गर्म नहीं बल्कि ठंडी होती है। यह धूप शरीर को उतना गर्म नहीं करती,जितना दिल को गुदगुदाती है। इसे हम ठंडी धूप कह सकते हैं…और यह बात भी उतनी ही सच है कि पहाड़ों के बाहर शायद ही कोई इसे समझ पाए। तमाम भूमंडलीय बदलावों, कम होते पेड़, जनसंख्या एवं वाहनों के बढ़ते बोझ तथा पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ के बाद भी सर्दियों में शिमला जैसे पहाड़ी इलाके किसी खूबसूरत तस्वीर की तरह हो जाते हैं…धीमे-धीमे पहाड़ों पर उतरती धुंध, पेड़ों पर जमी ओस से बनती बर्फ की सफ़ेद परत, पर्वतों पर पसरी छाया और इनके बीच ठंडी धूप..जो पूरे शहर को अपने हल्के, सुनहरे आंचल में ढँक कर गुदगुदाती है।
ठंडी धूप तपती नहीं है बस अपने होने का अहसास कराती है। ऐसा लगता है जैसे पहाड़ों ने इसे अपने सबसे ऊंचाई पर रखे फ्रिज में रखकर ठंडा करके नीचे भेजा हो। इस ठंडी धूप में एक ख़ामोशी होती है, नर्माहट होती है और थोड़ी सुरसुरी भी जबकि शहर की धूप जलाती सी, शोर मचाती और भागती हुई सी लगती है। शिमला की ठंडी धूप किसी मन को छू लेने वाले संगीत की तरह है। यह शरीर को नहीं, बल्कि मन को गर्म करती है । यह धूप माँ के हाथों के स्पर्श जैसी कोमल गर्माहट लिए होती है। देवदार की लम्बी कतारों के पीछे मचलती यह धूप किसी पुरानी फिल्म सी लगती है।
शिमला जैसे पहाड़ों पर धूप सेंकना सिर्फ ठंड से बचने का तरीका नहीं है बल्कि जीवन का खूबसूरत समारोह है। धूप के कोनों में सजी महिलाओं की महफिल, दुकानों के बाहर बैंच पर जमे बुज़ुर्ग, मॉल रोड पर खेलते बच्चे… हर कोई धूप में अपना छोटा-सा कोना खोज लेता है। लोग रिज और मॉल रोड पर बैठकर दिन भर गपियाते हुए धूप तापते हैं। आसपास की दुकानों से उठती चाय की खुशबू और सूरज की ठंडी धूप मिलकर ऐसा खुशनुमा माहौल रचते हैं मानो समय जैसे कुछ देर के लिए ठहर गया हो। यहां धूप के लिए वाकई वक्त ठहर जाता है और लोग समय की परवाह किए बिना बस ज्यादा से ज्यादा वक्त धूप में गुजारते हैं।
शिमला में आमतौर पर कोहरा इतना घना होता है कि मॉल रोड भी धुंध में गुम हो जाती है। फिर अचानक बादल छटते हैं और सूरज निकलता है लेकिन यह दिल्ली या भोपाल वाला सूरज नहीं होता जो आते ही पसीना निकाल दे। यहाँ सूरज भी कम्बल ओढ़कर आता है। उसकी किरणें हम तक आती तो हैं लेकिन ठंड से कांप रही हवा को आसानी से गर्म नहीं कर पाती। इस ठंडी धूप का अंतराल भी बहुत छोटा होता है..दिन में महज दो-तीन घंटे। उसके बाद फिर बादल आ जाते हैं या सूरज ढल जाता है।
यहां की धूप अजीब है और बेवफा भी क्योंकि यह गर्माहट का वादा तो करती है, पर पूरा नहीं करती। बस इतना मिलती है कि आप में जीने का हौसला आ जाए । यही वजह है कि पहाड़ों में लोग धूप को संजोकर रखते हैं। घरों में खिड़कियाँ बड़ी-बड़ी बनाते हैं और घर इस तरह बनाते हैं कि कम से कम एक कमरे में तो पर्याप्त धूप रहे। पहाड़ों के पारंपरिक लकड़ी से बने घरों में इसे धूप-कक्ष कहते हैं..मतलब एक ऐसा कमरा जिसमें बैठकर सर्दियों में पूरा परिवार चाय पीता, किताबें पढ़ता और धूप को अंदर तक सोखता रहता है । मजेदार बात यह भी है कि यहां कई इलाकों के नाम धूप की उपलब्धता पर भी हैं जैसे लॉन्गवुड इलाके का ‘ऑलसनी’ मतलब यहां पूरे दिन भरपूर धूप मिलती है और ठंडी सड़क भी, जहां से धूप को परहेज है ।
धूप यहां मेल मुलाकात का और साझा जीवन शैली का जरिया भी है। अब भले ही इलेक्ट्रिक हीटर जैसे तमाम साधन उपलब्ध हैं वरना पहले तो घरों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक में लकड़ी और पत्थर के कोयले की अंगीठी जलती थी। इसे स्थानीय तौर पर बखारी/बुखारी भी कहते हैं। सुबह होते ही धुएं की उठती गहरी लकीर पास पड़ोस तक को अंगीठी सुलगने का अहसास करा देती थी। तब दफ्तरों में बाकायदा एक व्यक्ति को ये जिम्मेदारी दी जाती थी कि वह सुबह से अंगीठी सुलगा कर कमरे गर्म रखे ताकि ऑफिस खुलने के बाद तमाम अधिकारी कर्मचारी बढ़िया ढंग से काम कर सकें।
पहाड़ों की ठंडी धूप का एक और रंग है, उसकी चमक। बर्फ पड़ने के बाद जब धूप इन बर्फीली चोटियों पर पड़ती है तो पूरा परिदृश्य चमकने लगता है। देवदार के पेड़ों पर जमी बर्फ सूरज की किरणों से हौंसला पाकर चाँदी जैसी चमकने लगती है। शाम ढलते-ढलते धूप पीली हो जाती है और बर्फ़ का रंग सुनहला। ठंड और तेज़ हो जाती है इसलिए लोग धीरे-धीरे घरों में दुबकने लगते हैं। इस दौरान रजाई कंबल में घुसकर भी लगता है कि शरीर में ठंडक बाकी है। इन क्षणों में लगता है जैसे पहाड़ हमें अपनी बाँहों में भरकर कुछ पल के लिए अपनी दुनिया में समाहित कर लेते हैं। शिमला की ठंडी धूप किसी पुराने ख़त की तरह है जिसे बार-बार पढ़कर भी सुकून नहीं मिलता और हर रोज उस समय का इंतजार रहता है जब धूप ठंडी ही सही पर फिर से आकर तन मन को भिगो देगी।
(फोटो कैप्शन: आदमी पर भारी रजाईयां..दूसरों को ठंड से बचाने में जुटे खान बहादुर)
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