अलीम बजमी
भोपाल। इस्लाम का हरियाली से बड़ा गहरा नाता है। इसकी मिसाल भोपाल और उसकी मस्जिदें है। यहां पर्यावरण की खातिर वर्षों पहले मस्जिदों में फल और फूल दार पौधे लगाए गए। ये बाद में मस्जिदों की पहचान बन गए। अब उन्हीं के नामों से कई मस्जिदों को पहचाना जाता है। ऐसा शायद अन्य शहरों में आपको नहीं मिलेगा। वहीं, नारी शक्ति को भी भोपाल में शुरू से सम्मान मिला। यहां चार पीढ़ियों तक बेगमात का शासन रहा। यही कारण है कि शहर में महिलाओं के नाम से भी कई मस्जिदें है। इनका निर्माण भी नवाब बेगमों के अलावा अन्य महिलाओं ने भी कराया, बंदे यहां पहुंचकर अकीदत के साथ सजदा करते हैं।
यद्यपि मस्जिदों का जिक्र आते ही आपकी आंखों में मिस्र के काहिरा शहर और बांग्लादेश के शहर ढाका की तस्वीर उभरती है। इन नगरों में सबसे ज्यादा मस्जिदें है। भोपाल भी मस्जिदों का शहर बन चुका है। वर्ष 1998-99 में हुए एक सर्वे में ये संख्या 380 थीं। लेकिन अब 550 मस्जिदों के होने का अनुमान है। इसकी बड़ी वजह, भोपाल की नगरीय सीमा के विस्तार के साथ ही नव विकसित कॉलोनियों, मोहल्लों आदि में मस्जिदों का नया निर्माण होना है।
सबसे पहले मांजी मामौला ने
शहर में तीन मस्जिद बनवाई
भोपाल रियासत के दूसरे नवाब यार मोहम्मद खां की पत्नी जिन्हें लोग आदर से मांजी मामौला कहते थे, ने महिलाओं की नुमाइंदगी करते हुए सबसे पहले तीन मस्जिदों का निर्माण कराया। इसके बाद चार नवाब बेगमों ने भी अलग-अलग कालखंडों में मस्जिदों का निर्माण कराया। उनके देखा-देखी अन्य महिलाएं भी आगे आईं।
अब भोपाल की नई मस्जिदों में आधुनिक व्यवस्थाओं का समावेश मिलेगा। लेकिन ग्रीनरी पर सभी का फोकस है। वैसे भी पैगम्बर -ए-इस्लाम हजरत मोहम्मद (स.अ.व.) साहब ने फरमाया था, पौधे लगाना नेकी का काम है। पेड़ काटना कुदरत को चोट पहुंचाना है। इसके मद्दे नजर भोपाल की कुछ मस्जिदों में बाग़ बग़ीचे और पौधे लगाए जाते रहे। मोती मस्जिद इसकी बड़ी मिसाल है इसका बाग़ आज भी मौजूद है।
आम और केले के पौधों ने पहचान दे दी
शहर की सघन आबादी से घिरे जहांगीराबाद में एक प्राचीन मस्जिद को आम वाली मस्जिद के नाम से पहचाना जाता है तो सुलेमानिया स्कूल (मोती मस्जिद क्षेत्र) में केलों के पौधे होने से इसको बंदे केले वाली मस्जिद के नाम से पुकारने लगे। इतना ही नहीं, भोपाल रियासत कालखंड की शुरुआत में ही पर्यावरण का महत्व समझाने मस्जिदों में बगीचे, पौधे लगाने की परंपरा रही। इसका उद्देश्य लोगों को हरियाली के लिए प्रेरित करना। भोपाल रियासत काल में तो ये व्यवस्था काफी परवान चढ़ी। इसकी मिसाल मोती मस्जिद, ताजुल मसाजिद, सूफिया मस्जिद में खास तौर पर मिलती है।
चमेली नाम से दो मस्जिदें
बड़े तालाब के नजदीक (वीआईपी रोड) स्थित मस्जिद को लाल इमली के नाम से जाना जाता है। कोतवाली के पीछे (यूनानी शफाखाना के पास) प्राचीन पेड़ के कारण कबीट वाली मस्जिद का नाम अस्तित्व में आ गया। चमेली के पेड़ के कारण घाटी भड़भूजा तलैया और किलोल पार्क के सामने इसी नाम से दो मस्जिदें है। तलैया में ही अरीठे वाली मस्जिद है । इधर, सेंट्रल लायब्रेरी के पास बड़ (बरगद) वाली मस्जिद है।उधर, जिंसी रोड पर नीम वाली मस्जिद भी है। फतेहगढ़ में स्थित एक मस्जिद की पहचान जामुन के कारण है। इसे भी जामुन वाली मस्जिद के नाम से पुकारा जाता है।
अब ये भी जान लीजिए कि इस्लाम में औरतों का बहुत ऊंचा मर्तबा है। इस्लाम ने औरतों को अपने जीवन के हर भाग में महत्व और सम्मान दिया। इसके चलते भोपाल में हरेक बेगम ने मस्जिदों की तामीर कराई। हांलाकि उन्होंने अपना रखने से गुरेज किया। इनके देखादेखी अन्य महिलाओं ने इनका निर्माण कराया।
प्रसंगवश
ये बताना उचित होगा कि नवाब शाहजहां बेगम ने ताजुल मसाजिद के निर्माण की नींव रखीं। उन्होंने ही भोपाल में ईदगाह का निर्माण कराया जो देश की सबसे बड़ी बाउंड्रीवाल (सीमा दीवार) वाली ईदगाह है। उनके पहले नवाब कुदसिया जहां बेगम ने जामा मस्जिद की आधारशिला रखी। ये लाल रंग के पत्थरों से निर्मित है। बाद में इसे उनकी बेटी नवाब सिकन्दर जहां बेगम ने मुकम्मल करवाया। नवाब सिकन्दर जहां बेगम का असली नाम मोती बीवी था। उनके इंतकाल के बाद इन्हीं के नाम से मस्जिद को पुकारा जाने लगा। इस मस्जिद में सफेद संगमरमर और लाल पत्थर का इस्तेमाल किया गया है। इकबाल मैदान के सामने एक हीरा मस्जिद है। इसका निर्माण नवाब सुल्तान जहां बेगम ने करवाया था। इसे नाम मिला हीरा मस्जिद। मस्जिद को हीरा नाम इसलिए दिया गया क्योंकि, ये मस्जिद दिन की धूप में या चांदनी रात में किसी हीरे की तरह चमकती है। पत्थरों पर बारीक और खूबसूरत नक्काशी इसकी खासियत हैं। हांलाकि कुछ बंदों का दावा है कि ये मस्जिद नवाब शाहजहां बेगम ने बनवाई थीं।
महिलाओं के नाम से दर्जनों मस्जिदें
भोपाल शहर में महिलाओं के नाम से आबाद मस्जिदों की संख्या दर्जनों में है। इनमें से प्रमुख हैं, कल्लो बुआ की मस्जिद। ये घरों में काम करने वाली महिला ने अपने परिश्रम के धन से पुराने किले के नजदीक बनवाई। इसी तरह गाना-बजाना करके अपना जीवन यापन करने वाली महिलाओं ने जब इबादत की राह पकड़ी तो मेहनत-मशक्कत करके मस्जिदें बनवाई। इनमें एक इस्लामपुरा में (मिरासन) मस्जिद तो दूसरी सुल्तानिया रोड पर मदार डोमनी वाली हैं। महिलाओं के नाम से पिपलियां पेंदे खां में मस्जिद अहमदी बेगम, आचार्य नरेंद्रदेव नगर गोविंदपुरा में फातमा जोहरा, ऐशबाग स्टेडियम के नजदीक मस्जिद फातिमा बी, बाग फरहत अफजा में मस्जिद सिकंदर जहां,तुलसी नगर में नफीसा बी, गोविंदपुरा अफजल कॉलोनी में मस्जिद अजीजा बेगम, झद्दा कब्रिस्तान के सामने मस्जिद कनीस फातमा, जहांगीराबाद बाजार में मस्जिद नौशां, अहाता कल्ला शाह जिंसी रोड में मस्जिद नानी साहिबा, नीलम पार्क के नजदीक मस्जिद बादशाह बहू, इतवारा में ब्रिरजीसिया, छावनी में मक्का वाली बेगम, लखेरापुरा में सेहरन बी, घोड़ा नक्कास में मस्जिद नस्तरनबानो, करोंद में मस्जिद हाजरा बेगम, आरिफ नगर में मस्जिद बिल्कीसजहां , काजी कैंप में मस्जिद नन्हीं बेगम, रेजीमेंट रोड में मस्जिद सुल्तानिया, सीढ़ी घाट इकबाल मैदान एवं रेतघाट में मस्जिद माजी साहिबा, अहमदाबाद में मस्जिद सूफिया एवं मस्जिद गजाली, कर्बला रोड पर मस्जिद साजिदा सुल्तान आदि हैं।
एशिया की सबसे बड़ी और
छोटी मस्जिद भी भोपाल में
वहीं, शहर में एशिया की प्रसिद्ध ताज-उल-मसाजिद है, जहां 1948 ई. से 2000 ई. तक 52 वर्ष आलमी तब्लीग़ी इज्तिमा होता रहा, इसे एशिया की बड़ी मस्जिदों में शुमार किया जाता है। अब इज्तिमा ईटखेड़ी के घांसीपुरा में आयोजित होता है। ताजुल मसाजिद से कुछ फासले पर क़िला फतेहगढ़ की बाउंड्रीवाल पर बनी मस्जिद ढाई सीढ़ी है। ढाई स्टेप ही इसकी पहचान हैं। ऐसा बताते हैं कि इसका निर्माण भोपाल राज्य के संस्थापक सरदार दोस्त मोहम्मद खां के कार्यकाल में फतेगढ़ क़िले के साथ हुआ था। यहां क़िले की निगरानी करने वाले सिपाही नमाज़ अदा करते थे। कई लोगों का कहना है कि यह नगर की पहली और विश्व की सबसे छोटी मस्जिद है।
फेसबुक वाल से साभार