Happy Birthday Bashir:  डॉ. बशीर बद्र: उर्दू ग़ज़ल का अज़ीम चेहरा

अलीम बजमी
उर्दू ग़ज़ल के शहंशाह डॉ. बशीर बद्र को सालगिरह मुबारक। 15 फ़रवरी उनकी यौमे-पैदाइश है। 90 बरस की उम्र में भी उनका नाम उर्दू अदब की रूह में बसा हुआ है। तक़रीबन एक दशक से वह डिमेंशिया की गिरफ़्त में हैं, जिससे उनकी याददाश्त कमजोर हो गई है, मगर उनके शेर आज भी दिलों में धड़कते हैं।
उनकी अहलिया, डॉ. राहत बद्र, जब उनके अशआर गुनगुनाती हैं, तो बशीर बद्र साहब के चेहरे पर शादाबी की हल्की सी झलक उभर आती है। कभी-कभी वे ख़ुद भी मिसरा पूरा करने लगते हैं। एक वक़्त था, जब उनके बिना मुशायरे अधूरे माने जाते थे। उनकी मौजूदगी महफ़िल की कामयाबी की ज़मानत हुआ करती थी। अब अदबी हलक़ों में उनकी कमी शिद्दत से महसूस की जाती है, मगर उनके क़द्रदान अपने-अपने अंदाज़ में उनकी सालगिरह मनाते हैं। मैं भी उन्हें दिली मुबारकबाद पेश करता हूँ।
शायरी में दर्द, मोहब्बत और ज़िंदगी की सच्चाई
डॉ. बद्र की शायरी में मोहब्बत का ख़ुलूस, ज़िंदगी की तल्ख़ी, शहरी भाग-दौड़ की बेचैनी और हिंदुस्तानी मिट्टी की ख़ुशबू मिलती है। उनके शेर सड़क से लेकर संसद तक गूंजते रहे हैं। उनकी ग़ज़लों ने देश-दुनिया में लोगों के दिलों को छुआ और ज़ुबानों पर चस्पा हो गए।
“कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता।”
यह महज़ एक शेर नहीं, बल्कि एक एहसास है जो हर धोखा खाए दिल की आवाज़ बन गया।
उनकी शायरी की तासीर देखिए—
“मेरी हंसी से उदासी के फूल खिलते हैं
मैं सबके साथ हूँ, लेकिन जुदा सा लगता हूँ।”
यही फ़न उन्हें सबसे अलग बनाता है। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को आम आदमी की ज़ुबान बख़्शी, उसे नए लहजे से नवाज़ा और नए अहसास दिए।
वो शेर जिसने बशीर बद्र को मक़बूल कर दिया
उत्तर प्रदेश के अयोध्या में 15 फरवरी 1935 को पैदा हुए बशीर बद्र ने कम उम्र में ही शायरी शुरू कर दी थी। मगर मक़बूलियत मिली इस शेर से—
“उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।”
1960 के दशक में इस शेर को मशहूर अदाकारा मीना कुमारी ने अपने हाथों से लिखकर एक मैगज़ीन को दिया। बस, फिर क्या था! बशीर बद्र की शोहरत का सफ़र तेज़ हो गया।
सियासी हलक़ों और मुशायरों में गूंजते रहे उनके शेर
उनकी शायरी महज़ हुस्न और इश्क़ तक महदूद नहीं रही। समाजी मुद्दों पर भी उन्होंने बेबाकी से लिखा। मुल्क के बँटवारे के दर्द को उन्होंने इस तरह बयान किया—
“दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों।”
ये शेर उन्होंने शिमला समझौते के मौक़े पर पढ़ा था। फिर जब उन्हें पाकिस्तान से मुशायरे का बुलावा मिला, तो वहां भी यही शेर पढ़ा और महफ़िल में सन्नाटा छा गया।
मेरठ के दंगों ने बदला उनकी ज़िंदगी का रुख़
1987 के मेरठ दंगों में उनका घर जला दिया गया। यह हादसा उनके लिए बेहद तकलीफ़देह था। इस दर्द को उन्होंने अपने अशआर में समेटा—
“लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।”
इस हादसे के बाद उन्होंने भोपाल को अपना ठिकाना बना लिया और यहीं के होकर रह गए।
शायरी का नया अंदाज़ और नए लफ़्ज़ों का इस्तेमाल
डॉ. बद्र की शायरी का सबसे ख़ास पहलू यह है कि उन्होंने ग़ज़ल को आसान लफ़्ज़ों में ढाला। उनकी शायरी न तो अरबी-फारसी के भारी-भरकम लफ़्ज़ों में जकड़ी हुई है और न ही क्लासिकी रवायतों की ग़ुलाम। उन्होंने नए लफ़्ज़ों को ग़ज़ल में जगह दी, नए तजुर्बे किए और ग़ज़ल को एक नया आयाम दिया।
“जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
आंखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।”
तालीम में भी अव्वल
डॉ. बद्र का अक़ली सफ़र भी लाजवाब रहा। वे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के गोल्ड मेडलिस्ट हैं।  दिलचस्प बात यह रही कि जब वे वहां पढ़ने गए तो एम.ए. के कोर्स में उनके ख़ुद के अशआर शामिल थे।
शायरी से पहले पुलिस की नौकरी
क़रीब 15-16 साल की उम्र में उनके वालिद का इंतिक़ाल हो गया था। मजबूरन उन्होंने पुलिस की नौकरी ज्वॉइन कर ली। मगर शायरी से इश्क़ बरक़रार रहा। इस दौरान उन्हें तरक़्क़ी की पेशकश हुई, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया और एक यादगार शेर कह दिया—
“बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
दरिया जहाँ समंदर से मिला, दरिया नहीं रहता।”
बेटियों के लिए ख़ास शेर
बेटियों की एहमियत को उन्होंने यूँ बयाँ किया—
“वो शाख़ है न फूल, अगर तितलियाँ न हों
वो घर भी कोई घर है जहाँ बच्चियाँ न हों।”
और आख़िर में…
डॉ. बशीर बद्र की शायरी ने उर्दू अदब को एक नया रंग दिया। उनकी ग़ज़लों में अहसास की ख़ुशबू, मोहब्बत की गर्मी और दर्द की शिद्दत एक साथ मिलती है। ओहदा पाने के बाद कई लोगों में गुरुर जाता है। वे भ्रम पाल लेते हैं। ऐसे बंदों को भी उन्होंने चेताते हुए लिखा—
“शोहरत की बुलंदी भी पलभर का तमाशा है
जिस डाल पर बैठे हो, वो टूट भी सकती है।”
रब से दुआ है कि डॉ. बद्र जल्द सेहतयाब हों और फिर से महफ़िलों में रोशनी बिखेरें। आमीन!
अलीम बजमी, भोपाल।

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

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