उम्मीद” का दीया, अदब की रौशनी छोड़ गया
सादगी और हाज़िरजवाबी से सबको अपना बनाने
वाले ‘उम्मीद’ ने फानी दुनिया को अलविदा कहा…

अलीम बजमी
भोपाल। राजधानी की अदबी दुनिया में अलहदा पहचान बनाने वाले शायर  डॉ. सैयद अली अब्बास ‘उम्मीद’ 75 वर्ष की उम्र में फानी दुनिया को अलविदा कह गए। 
मोहब्बत, सादगी और हाज़िरजवाबी से सबको अपना बनाने वाले डॉ. ‘उम्मीद’ कहते थे…
“हमसे मत पूछिए क्या नफ़्स पे गुज़री ‘उम्मीद’,
एक-एक सांस से लड़ते हुए लश्कर देखे।”
शायर, शिक्षाविद् और समाजसेवी डॉ.  ‘उम्मीद’ उर्दू अदब में अदबी जमात में अलग पहचान रखते थे। लंबे बाल, कलंदराना मिज़ाज, हर किसी से मोहब्बत से मिलना और सच कहने का टेस्ट—ये उनकी शख़्सियत के अमिट आयाम थे। हिंदी की सादगी और उर्दू की नफ़ासत उनके लहजे में साथ-साथ मिलती थी। अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू पर बराबर पकड़ ने उनकी अदबी शख्सियत को व्यापक रूप दिया।
मुशायरों में जब वे ग़ज़ल कहें, नज़्म सुनायें या दोहे पढ़ें, तो उनके अशआर ज़िंदगी की कड़वी हक़ीक़तों से रुबरु करा देते थे। साहित्यिक चमक-दमक से दूर, उनके अदब ने आम-लोगों के दिलों में गहरी छाप छोड़ी; उनकी हाज़िरजवाबी महफ़िलों में ठहाकों और तालियों का मौसम बन जाती थी।
भोपाल की अदबी दुनिया में 1960 के दशक में कदम रखा। इसके बाद रफ्ता-रफ्ता उनका नाम उभरता गया। उन्होंने मुशायरों और अदीबी मंचों में अपनी अलग पहचान जल्दी बना ली—और फिर शहर की साहित्यिक दुनिया के चर्चित चेहरे बनकर उभरे।
उनकी मर्सियागोई की पकड़ बेमिसाल थी। हालिया मोहर्रम की एक मजलिस में उनके पढ़े हुए दोहे आज भी लोगों की जुबान पर हैं—
“डूब चुका था सत्य का सूरज, दिन पर छाई रैन,
सिर को दीप बना कर निकले, अली के वीर हुसैन।”
और—
“कर्बल वन में जुटे थे कायर बन के शूर और वीर,
सत्य का ऐसा बाण चला कि फूट गई तक़दीर।”
उनके काव्य-संग्रहों में ‘लहू लहू’ और ‘पत्थरों का शहर’ खास लोकप्रिय रहे; ‘लब-ए-गोया’ और ‘जो याद रहा वो सौंप दिया’ ने भी शायरी के चाहने वालों के दिल छू लिए। निगार-ए-गालिब, आफाकी अलमिया समेत करीब दो दर्जन से अधिक प्रकाशित संग्रहों ने उनसे जुड़ी अल्फाज़ की दौलत को बखूबी दर्शाया।
जौनपुर मूल के रहकर भोपाल को ही अपनी कर्मभूमि चुनने वाले उम्मीद साहब अखिल भारतीय कलमकार परिषद के प्रमुख भी रहे—सत्ता और पद से दूरी बनाकर उन्होंने फ़िक्र-ओ-फ़न के ज़मीनी कामों को तरजीह दी।
उम्मीद साहब को भोपाल टॉकीज़ के नज़दीक, अशोका होटल के पीछे स्थित कब्रिस्तान में मंगलवार रात को सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया। उनके अंतिम सफर में शहर की अनेक शख्सियतें शरीक रहीं।
आखिरी में सिर्फ इतना की कि उनकी सादगी, हाज़िरजवाबी और लफ़्ज़ों की गर्माहट हमेशा याद रहेगी। उम्मीद साहब का जाना सिर्फ़ उर्दू अदब ही नहीं, बल्कि इंसानियत और मोहब्बत की दुनिया का बड़ा नुक़सान है। उनकी शख़्सियत और उनका कलाम आने वाली नस्लों के लिए हमेशा रोशनी का ज़रिया रहेगा।
साभार

Sanjay Saxena

BSc. बायोलॉजी और समाजशास्त्र से एमए, 1985 से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय , मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दैनिक अखबारों में रिपोर्टर और संपादक के रूप में कार्य कर रहे हैं। आरटीआई, पर्यावरण, आर्थिक सामाजिक, स्वास्थ्य, योग, जैसे विषयों पर लेखन। राजनीतिक समाचार और राजनीतिक विश्लेषण , समीक्षा, चुनाव विश्लेषण, पॉलिटिकल कंसल्टेंसी में विशेषज्ञता। समाज सेवा में रुचि। लोकहित की महत्वपूर्ण जानकारी जुटाना और उस जानकारी को समाचार के रूप प्रस्तुत करना। वर्तमान में डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े। राजनीतिक सूचनाओं में रुचि और संदर्भ रखने के सतत प्रयास।

Related Articles