न बच्चे, न कक्षाएं, पर 8 शिक्षक घर बैठे ले रहे हैं वेतन
नरसिंहपुर। मध्य प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री राज्य की शिक्षा की हालत कैसे सुधार पाएंगे, जब उनके अपने ही गृह जिले के स्कूल बदहाल बने हुए हैँ।
नरसिंहपुर ज़िले के करेली ब्लॉक के गोंडी धुबघाट गाँव में एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय, ताले लगे, धूल से ढका और कूड़े के ढेर में घिरा, एक भूला-बिसरा सा ढाँचा सा खड़ा है। जब भास्कर ने स्कूल का दौरा किया, तो उन्हें दरवाज़ों के ऊपर मकड़ी के जाले, अंदर टूटे हुए फर्श, बिखरी हुई किताबें और एक अकेली धूल भरी कुर्सी मिली।
इमारत की सालों से पुताई नहीं हुई है और न ही कोई कक्षाएँ लगती हैं। पास का शौचालय भी बंद है और परिसर में कूड़े का ढेर लगा हुआ है। ग्रामीणों ने पुष्टि की कि स्कूल साल भर बंद रहता है और शिक्षक साल में केवल दो बार, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर ही आते हैं।
कोई छात्र नहीं, लेकिन 2 शिक्षक तैनात
ग्रामीणों के अनुसार, स्कूल में कई सालों से कोई नामांकन नहीं हुआ है। फिर भी, दो शिक्षक – तुल कुमार शर्मा और चंचल शर्मा – यहाँ आधिकारिक तौर पर तैनात हैं। बताया जाता है कि दोनों को पूरा सरकारी वेतन मिलता है, जबकि वे कभी-कभार ही स्कूल जाते हैं।
निवासी ममता बाई जाट ने कहा, “हमारे बच्चे अब नरसिंहपुर शहर में पढ़ते हैं क्योंकि यहाँ कोई पढ़ाता नहीं है। हम उन्हें रोज़ाना ख़राब सड़कों पर ही छोड़ते और लाते हैं।”
एक अन्य ग्रामीण, रणवती बाई ने बताया कि गाँव में शिक्षा की सुविधाओं की कमी के कारण उनकी बेटी को अपने बच्चों के साथ शहर जाना पड़ा। “अगर स्कूल चलता होता, तो उन्हें शहर में किराए पर जगह नहीं लेनी पड़ती।”
4 स्कूल निष्क्रिय पाए गए
यह मामला तब प्रकाश में आया जब कार्यवाहक जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ) सलीम खान ने हाल ही में स्कूलों और कर्मचारियों की स्थिति रिपोर्ट माँगी। जाँच में पता चला कि करेली ब्लॉक के चार प्राथमिक स्कूलों, जिनमें गोंडी धुबघाट, पिंडरई, सेहरा बड़ा और महेश्वर शामिल हैं, में एक भी छात्र नामांकन नहीं है। फिर भी, प्रत्येक स्कूल में दो शिक्षक तैनात हैं और सभी आठों को नियमित वेतन मिल रहा है।
इन स्कूल भवनों की हालत भी उतनी ही दयनीय है – दीवारें टूटी हुई हैं, कोई मरम्मत नहीं हुई है, और कोई शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती।
गैर-कार्यात्मक स्कूलों पर सालाना ₹50 लाख खर्च
छात्रों की अनुपस्थिति के बावजूद, इन चार स्कूलों के रखरखाव पर हर महीने लगभग ₹1 लाख खर्च हो रहे हैं। साल भर में यह खर्च ₹50 लाख से ज़्यादा होता है। इस बीच, किताबें जस की तस पड़ी हैं और दीवारें ढहने के कगार पर हैं।