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Interview: शास्त्रीय संगीत का दौर खत्म नहीं हुआ, न होगा: बालकृष्ण अय्यर

जाने माने तबला वादक से विशेष बातचीत

संजय सक्सेना 

देश में जब सांस्कृतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है, ऐसे में हमारी प्राचीन परंपराओं के साथ ही प्राचीन शास्त्रीय कलाओं को लेकर चिंता स्वाभाविक ही है। परंतु परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कहीं न कहीं नई पीढ़ी में कम ही सही, अपनी परंपराओं और कलाओं के प्रति रुचि उत्पन्न होती दिख रही है। उम्मीद की एक किरण ही काफी होती है। यह कहना है देश के जाने माने तबला वादक बालकृष्ण अय्यर का। जबलपुर में जन्मे और भोपाल में युवावस्था गुजारने वाले पंडित बालकृष्ण एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने राजधानी आए। यहां उनसे फुर्सत के पलों में बेबाक चर्चा हुई। प्रस्तुत हैं चर्चा के प्रमुख अंश- 

देश में जहां सनातन और धर्म को लेकर बहस छिड़ी हुई है, ऐसे में आप भारतीय संगीत और कलाओं को लेकर क्या सोचते हैं?

हम तो केवल अपने शास्त्रीय संगीत, गायन और वादन तक सीमित रहते हैं। तबला वादन हमारा शौक ही नहीं, हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। जहां तक इन कलाओं की बात है तो जब हमारे जीवन मूल्यों में गिरावट का दौर देखा जा रहा है, तो यह क्षेत्र कैसे अछूता रह सकता है?

आप भोपाल से मुम्बई चले गए, वहां क्या बदलाव महसूस किया? 

हर शहर का अपना स्वभाव है। अपना चरित्र है। उसका अपना एक माहौल होता है। मुम्बई जागता शहर है। वहां हर तरह के लोग रहते हैं। भोपाल में सांस्कृतिक गतिविधियां आज भी होती हैं, लेकिन यहां अब वो माहौल नहीं रहा। मुम्बई की बात करें तो वहां प्रोफेशनलिज्म हावी हो गया है। हम गए, तब भारतीय कलाओं के लिए अच्छा माहौल था। वादन के क्षेत्र में बहुत काम था। तबला, सारंगी, बांसुरी आदि के कलाकारों की पूछ परख भी काफी थी। अब शास्त्रीय और पाश्चात्य संगीत का सम्मिश्रण चल रहा है। इसलिए शुद्धता के बजाय मिश्रण को महत्व दिया जाता है। 

आपने अपने आप को केवल तबला वादन तक सीमित रखा या सिखाने के लिए कोई संस्था शुरू की?

पहले काफी लोगों को सिखाया। आज भी सिखाता हूं, लेकिन सीखने वालों की गंभीरता में कमी आई है। संस्था भी चला रहे हैं। कोई इंस्टीट्यट नहीं खोला। कोई सीखना चाहता है तो घर पर सिखाते हैं। हां, विदेशों में जरूर आनलाइन प्रशिक्षण चलता रहता है।

मध्यप्रदेश को लेकर आपकी क्या राय है?

यहां सांस्कृतिक गतिविधियां तो बढ़ी हैं। राजधानी भोपाल में भी आए दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होते रहते हैं, परंतु शास्त्रीयता या कहें कि शास्त्रीय गायन-वादन की शुद्धता कम हुई है। कार्यक्रम के उद्देश्य बदल गए हैं। प्रोफेनल हो गए हैं, सभी। आयोजन की सफलता भीड़ से आंकी जाने लगी है, इसलिए उन कलाकारों के कार्यक्रम अधिक कराए जाते हैं, जो मीडिया में लोकप्रियता पा चुके हों। 

तो क्या शास्त्रीय गायन और वादन की परंपरा को खतरा है?

खतरा बहुत ज्यादा तो नहीं कहा जा सकता, परंतु चिंताजनक बात तो है। पाश्चात्य संगीत का जादू सर चढक़र बोल रहा है। शास्त्रीय संगीत को फ्यूजन करके भी प्रयोग हो रहे हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है, इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि शास्त्रीय संगीत, गायन और वादन का युग फिर से आएगा। लोग जब शोर शराबे से ऊब जाते हैं तो उन्हें कुछ शांति की आवश्यकता होती है। ऐसे समय में शास्त्रीय संगीत अधिक काम आता है।

नई पीढ़ी से आप क्या कहना चाहते हैं?

हमारा मानना है कि नई पीढ़ी बहुत समझदार है। बच्चे नए प्रयोग करते हैं। बेहतर शिक्षा की ओर उनका आकर्षण है। ऐसे में बेहतर संगीत और गायन-वादन की ओर भी आकर्षण की उम्मीद की जा सकती है। कुछ बच्चे हमारे पास आते हैं, बात करते हैं और बदलाव की बात भी करते हैं। अच्छा लगता है। हम भारतीय संगीत के बेहतर भविष्य की कामना करते हैं। 

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