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संपादकीय…मुद्दों से भटकाने का दौर…!

वन नेशन, वन इलेक्शन… भारत या इंडिया..या फिर कुछ और। संसद के विशेष सत्र का एजेंडा अब तक बाहर नहीं आया है, लेकिन जो भी होगा नया होगा, ऐसा दावा किया जा रहा है। नया इसलिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वभाव है चौंकाना। समझा जाता है कि वे विशेष सत्र में उन मुद्दों पर नहीं जाएँगे जो फि़लहाल एक के बाद एक चर्चा में आ रहे हैं। लेकिन क्या लोकतंत्र में इसे स्वस्था परंपरा माना जाएगा कि हम विशेष सत्र बुलाएं और विपक्ष को एजेंडा भी न बताएं? इस पर अपने-अपने मत हैं, लेकिन जिन मुद्दों पर बहस नहीं होना चाहिए, उन पर ही हो रही है। और यही शायद सत्तापक्ष का लक्ष्य है।

वैसे कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने एक पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से पूछा है कि आखिर सरकार विशेष सत्र के एजेंडे को छिपाकर क्यों बैठी है? ज़ाहिर क्यों नहीं किया जा रहा है? सोनिया गांधी ने कुछ मुद्दे भी गिनाए हैं जिन पर विपक्ष चर्चा करना चाहता है। जैसे महंगाई, मणिपुर, अडाणी, चीन सीमा मुद्दा, समर्थन मूल्य, हरियाणा की हिंसा, जातीय जनगणना, केंद्र-राज्य टकराव और बाढ़, सूखा आदि।

लेकिन सरकार को जब एजेंडा जाहिर करना होगा, तभी किया जाएगा। पत्र का जवाब कथित तौर पर किसी ने दिया है, लेकिन सब कुछ घुमा दिया गया है। इस बीच सुना है कि विशेष सत्र का पहले दिन का काम पुराने संसद भवन में होगा और 19 सितंबर से नए भवन में शिफ्टिंग कर ली जाएगी।

फिलहाल तो देश में इंडिया और भारत की बहस तेज होती दिख रही है। यह बहस शायद इसलिए छेड़ी गई है, क्योंकि विपक्षी गठबंधन ने अपना संक्षिप्त नाम इंडिया रखा है। नहीं तो भारत सरकार ने स्टार्ट अप इंडिया से लेकर तमाम नाम इंडिया मिलाकर ही रखे हैं। सवाल उठाया जा रहा है, क्या यह मुद्दा संसद के विशेष सत्र में लाया जाएगा? या वन नेशन वन इलेक्शन का? राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि विशेष सत्र में भारत बनाम इंडिया का एजेंडा भी शायद ही आए क्योंकि सरकार ने यहाँ- वहाँ इंडिया की जगह भारत लिखना शुरू कर दिया है। जैसे प्रेसिडेंट ऑफ़ भारत, प्राइम मिनिस्टर ऑफ़ भारत आदि। सरकार इस बारे में कोई बहस करना नहीं चाहेगी।

प्रधानमंत्री मोदी सभाओं में अपने भाषण के दौरान लोगों से पूछेंगे कि आपको भारत चाहिए कि इंडिया चाहिए? लोग नारे लगाएँगे भारत चाहिए। बस, यही सत्ता पक्ष की पंच लाइन होगी, ऐसा लगता है। हो सकता है विपक्षी गठबंधन जिसका नया नाम इंडिया है, उसे अंग्रेजों का गठबंधन साबित कर दिया जाए। जैसे कि इस समय प्रयास भी चल रही है। दिख तो यही रहा है कि सत्ता पक्ष की इस रणनीति में विपक्ष बुरी तरह फँसता नजऱ आ रहा है। निकलने के रास्ते निश्चित रूप से विचारे जा रहे होंगे। सोचे जा रहे होंगे। आगे चार राज्यों में विधानसभा चुनाव हैं और फिर अगले साल की शुरुआत में लोकसभा के चुनाव भी होने हैं। लेकिन महंगाई, महंगाई और मणिपुर के मुद्दे हवा हो गए लगते हैं।

कहा जा रहा है कि ‘इंडिया, जो भारत है और राज्यों का संघ है’, उस पर हमला हो रहा है। लेकिन सिर्फ नाम बदलने से भारत की संघीय व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होगा। यह भी कहा जा रहा है कि इंडिया नाम बदलने पर सुप्रीम कोर्ट, इसरो, एम्स और रिजर्व बैंक जैसी तमाम संस्थाओं के नाम बदलने के लिए कानून में बदलाव करना होगा। कानून और संविधान के जानकार कहते हैं, नाम बदलने में कानूनी अड़चनों के साथ प्रशासनिक चुनौतियां और आर्थिक बोझ के पहलू शामिल हैं। सोशल मीडिया साइट एक्स (पुराना नाम ट्विटर) पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत कई लोग इंडिया का ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

2015 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जवाब देते हुए कहा था कि देश को इंडिया के बजाय भारत नहीं कहा जा सकता। मार्च 2016 में शीर्ष अदालत ने उस याचिका को रद्द करते हुए कहा था कि गरीबों के लिए बनी जनहित याचिका के सिस्टम का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। दूसरी याचिका को 2020 में रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उसे केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास प्रतिवेदन के तौर पर भेजने की इजाजत दी थी।

जहां इस मसले को इंडिया गठबंधन से जोडऩा विपक्षी नेताओं की आत्ममुग्धता कही जा रही है, वहीं दूसरी ओर सरकार को भी समझने की जरूरत है कि विश्व गुरु और वैश्विक अर्थव्यवस्था को लीड करने के दावे को सफल बनाने के लिए गंभीर विमर्श की जरूरत है। जी 20 में विदेशी शासनाध्यक्षों के आगमन से पहले मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रवक्ताओं के उलझाऊ बयानों के कारण देश की पहचान पर विवाद शुरू होने से पूरे आयोजन का उद्देश्य विफल न हो जाए। सत्ता पक्ष के हिसाब से देखें तो ऐसी बहसों से वह रोजगार, अर्थव्यवस्था और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार अपनी जवाबदेही से बच जाता है। विपक्ष के लिहाज से देखें तो यह साफ है कि उनके पास गवर्नेंस और बदलाव के लिए ठोस मुद्दों का अभाव है। जब भारत में अनेक देशों के शासनाध्यक्ष आ रहे हैं और जी 20 का लोगो वसुधैव कुटुंबकम है, तो ऐसे में देश के नामकरण पर विवाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को धूमिल ही करेगा। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि सत्तापक्ष संसद के विशेष सत्र के एजेंडे को सार्वजनिक करे। साथ ही लोकतंत्र की कुछ परंपराओं का तो पालन करे, ताकि यह लगे हम एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं। किसी ने ऐलान कर दिया और बस हो गया, यह लोकतंत्र की न तो परंपरा है और न ही इसके संकेत। और ऐसा ही करना है तो लोकतंत्र की समाप्ति की घोषणा ही कर दी जाए। कम से कम यह मानसिकता तो बना ली जाएगी कि आपके लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त हो चुके हैं। चुप रहो, बस देखते, सुनते और सहते रहो।

– संजय सक्सेना 

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