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संपादकीय….एक पावन नगरी को कलंकित कर दिया!

क्या फायदा ऐसा महाकाल लोक बनाने का, जहां ढाई घंटे से ज्यादा एक बच्ची बदहवास हालत में मदद मांगती हुई भटकती रही? क्या हमारी संवेदनाएं इस कदर मर चुकी हैं कि हम किसी की मदद के लिए आगे नहीं बढ़ पाते? और क्या हमारा समाज अधिक धार्मिक होने के नाम पर और ज्यादा बहशी नहीं होता जा रहा? क्या धर्म हमें बहशी और जंगली होने की शिक्षा देता है? क्या धर्म हमें संवेदनहीन होने की शिक्षा देता है? क्या धर्म हमें बच्चियों से दुष्कर्म करने की शिक्षा देता है?

सवाल तो उठेंगे। और समाज के साथ ही सरकार पर भी उठेंगे। सरकार की तो जिम्मेदारी है ही, उससे कहीं अधिक ऐसी घटनाओं के लिए हमारा समाज जिम्मेदार है। वो समाज जो आज धर्मांध होता जा रहा है। वो समाज जिसकी रैलियों में धार्मिक नारों से पूरा आसमान गुंजायमान हो जाता है। यह बात इसलिए उल्लेख की जाना चाहिए, क्योंकि हम धर्म के नाम पर केवल और केवल दिखावा ही कर रहे हैं।

यदि ऐसा नहीं तो धार्मिक नगरी, महाकाल की पावन नगरी उज्जयिनी आज कलंकित नहीं होती। एक नजर संक्षेप में हाल में घटी घटना पर डालते हैं। यहां के महाकाल थाना इलाके में बडऩगर रोड पर दांडी आश्रम के पास 12 साल की बच्ची सोमवार शाम घायल हालत में मिली थी। उसके कपड़े खून से सने थे।

बच्ची आधे-अधूरे कपड़ों में सांवराखेड़ी सिंहस्थ बाइपास की कॉलोनियों में ढाई घंटे तक भटकती रही। इसके सीसीटीवी फुटेज पुलिस ने खोजे हैं। वह पूरे आठ किलोमीटर तक भटकी। उसके प्राइवेट पार्ट्स में गंभीर चोटें हैं। उसने पुलिस को बताया- उसकी मां के साथ भी गलत काम हुआ है, लेकिन उसकी मां कहां है और वह उज्जैन तक कैसे आई? इस बारे में कुछ भी नहीं बता पा रही है। ज्यादा खून बह जाने के कारण बच्ची को इंदौर के अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। वहां उसे खून चढ़ाया गया, बच्ची अब खतरे से बाहर है। डॉक्टरों ने रेप की पुष्टि की है।

सीसीटीवी फुटेज में बच्ची सोमवार सुबह 5 बजकर 52 मिनट पर तिरुपति ड्रीम्स कॉलोनी में हड़बड़ाती हुई पैदल जाती दिखी है। इस दौरान सुबह कॉलोनी के एक वृद्ध ने उससे पूछा भी कि क्या हुआ है तो वह इतना ही बोली कि कुछ लोग मेरे पीछे लगे हैं। इसके बाद वह रुकी नहीं, तेजी से चलती गई। पुलिस संबंधित व्यक्ति तक भी पहुंची और बच्ची से हुई बातचीत के बारे में पता किया। इससे ये सामने आया कि वह दरिंदगी का शिकार होने के बाद जान बचाकर निकली और उसे समझ नहीं आ रहा था कि कहां जाए और किससे मदद मांगे? बस पैदल इस कॉलोनी से उस कॉलोनी चली जा रही थी।

यह हमारा समाज है। यह उस शहर की घटना है, जहां भगवान महाकाल विराजते हैं। वह शहर है, जिसे हमने पवित्र घोषित किया है। वह शहर है, जहां भगवान श्रीकृष्ण ने शिक्षा पाई थी। आदि, इत्यादि…। लेकिन इसी शहर में हुई इस घटना ने यहां की धार्मिक भावनाओं की परतें उधेड़ कर रख दी हैं। लोगों की धार्मिकता पर संदेह की उंगली उठाने को विवश कर दिया है। पूरे आठ किलोमीटर के दायरे में कोई संवेदनशील व्यक्ति नहीं। कोई संवेदनशील महिला बाहर निकल कर नहीं आई, मदद तो दूर उससे पूछने का साहस भी नहीं हुआ। हम महिलाओं को आज संसद में भी आरक्षण दे रहे हैं, लेकिन उसकी सुरक्षा में कितना आरक्षण दे रहे हैं?

क्या ये सवाल नहीं उठता कि जरा-जरा सी धार्मिक बातों या बयानों पर पूरा देश उबलने लगता है, इस बच्ची के प्रति किसी की संवेदना जागृत क्यों नहीं होती? क्यों एक धार्मिक शहर में एक बच्ची आठ किलोमीटर घायल अवस्था में भटकती रहती है? बात कड़वी है। तीखी है। तीखी होना भी चाहिए। धर्म की दुकान चलाने के लिए हम कहीं भी दंगा करने को तैयार हैं, लेकिन एक बच्ची की मदद के लिए घर से बाहर नहीं निकल सकते। धर्म हमें मानवता सिखाता है, या राक्षसी प्रवृत्ति की ओर ले जाता है? धर्म हमें बुराइयों को देख कर आंखें बंद करने की शिक्षा देता है? जिन भगवान श्रीराम का हम भव्य मंदिर बनवा रहे हैं, वो तो धर्म और अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए चौदह साल वनों में भटके थे। पूरा राज-पाट त्याग कर। हम धर्म के नाम पर क्या कर रहे हैं?

दुष्कर्म के मामले में हमारा मध्यप्रदेश सबसे आगे चल रहा है। ये आंकड़े बता रहे हैं। इसके लिए सरकार नहीं, सरकार से ज्यादा समाज दोषी है। दुष्कर्म हमारी विकृत होती मानसिकता का प्रतीक है। धर्म का नाम इसलिए लिया जाता है, क्योंकि धर्म हमें मानवता सिखाता है। धर्म किसी भी समाज को भटकने से बचाता है। आज धर्म क्या कर रहा है? एक बच्ची के साथ दुष्कर्म, फिर उसे पूरे आठ किलोमीटर भटकने का रास्ता तो नहीं दिखाता। संवेदनाओं के साथ ही किसी के खिलाफ नारे लगाने, लाठी चलाने, रैली निकाल कर गाडिय़ां और मकान फूंकने का नहीं, किसी को बचाने का साहस होना अधिक महत्वपूर्ण होता है। समाज स्वयं तय करे, किस दिशा में जा रहा है और किस दिशा में जाना चाहिए? आज किसी और की बच्ची के साथ हुआ, कल किसी और की बच्ची के साथ ऐसा हो सकता है। सोचना तो पड़ेगा। और ऐसा होता है।

– संजय सक्सेना

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