संपादकीय…..छोटे शहर भी जहरीली हवाओं के आगोश में
ग्रीन पीस इंडिया की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत की 99 फीसदी आबादी बेहद खराब हवा में सांस ले रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पीएम 2.5 के जो मानक तय किए हैं, हमारे यहां की हवा उससे सात गुना अधिक प्रदूषित पाई गई है। ये ज़हरीली हवा लोगों को बीमार बना रही है। कोरोना जैसे वायरस कमज़ोर फेफड़ों का क्या हाल करते हैं, हम देख चुके हैं। और ये जहर कल-कारखानों के बजाय बढ़ते वाहनों से ज्यादा फैल रहा है। शहरों में बढ़ता ट्रैफिक इसका बहुत बड़ा कारण बन गया है।
90 के दशक के अंत तक दिल्ली के प्रमुख ट्रैफिक जोड़ या चौराहों पर लंबे जाम लगने शुरू हो गए थे। सडक़ों पर ट्रैफिक का बोझ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था। काला धुआं छोड़ते डीज़ल वाहनों की वजह से सांस लेना दूभर हो गया था। लोग फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों के शिकार होने लगे। बाहर से आने वाले लोग भी यहां दम घुटने की शिकायत करते थे। स्थिति गंभीर होते देख सीएनजी फ्यूल पर शिफ्ट होने का बड़ा फैसला किया गया। हालांकि, इसका बड़े पैमाने पर विरोध हुआ, खूब प्रदर्शन व हड़तालें हुईं लेकिन अंतत: इस फैसले ने दिल्ली को सांस लेने लायक बनाया। प्रदूषण कम करने में काफी हद तक मदद मिली। लेकिन अन्य तमाम शहरों में सीएनजी और इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या बढऩे के बावजूद हवाओं जहर बढ़ता जा रहा है।
हालांकि दिल्ली में दस साल पुरानी गाडिय़ों पर पाबंदी और इलेक्ट्रिक गाडिय़ों पर ज़ोर देने के बाद थोड़ी और राहत महसूस होने लगी है। यहां की हवा में अब दो दशक पहले जैसी घुटन नहीं रही। परंतु वैसी घुटन अब छोटे शहरों में महसूस होने लगी है। देखा जाए तो पिछले कुछ वर्षों में टियर टू और थ्री शहरों में यातायात का दबाव काफी तेजी से बढ़ा है। एक ही सडक़ पर बस, ऑटो, टेम्पो, टैक्सी, ट्रक, ट्रैक्टर, टू व्हीलर, रिक्शे, बैलगाड़ी और जुगाड़ तक, सब एक साथ चलते हैं। डीज़ल से चलने वाली गाडिय़ों के काले धुएं के साथ ही धूल के गुबार में सांस लेना मुश्किल हो जाता है। दोपहिया पर चेहरे को ढके बिना निकले तो घर काला मुंह लेकर ही लौटते हैं।
एक समय था, जब हम ताज़ी हवा में सांस लेने के लिए दिल्ली से भागकर अपने शहर या गांव जाते थे। पर अब वहां की हवाओं में भी वैसी ताजग़ी नहीं रही। महानगरों की सारी बीमारियां धीरे-धीरे छोटे शहरों में पहुंचती जा रही हैं। गांव-कस्बों की ही क्या बात करें, पहाड़ी इलाके तक इससे अछूते नहीं रहे। हिल स्टेशन पर आप शुद्ध हवा में सांस लेने जाते हैं, पर वहां भी अब सारी दुनिया अपनी गाडिय़ां लेकर पहुंचने लगी है। पर्यटकों की संख्या बढऩे से टैक्सी और बस वालों का धंधा भी बड़े पैमाने पर फल-फूल गया है। ऐसे में अब सारे लोकप्रिय पर्वतीय स्थलों पर शहरों वाला ट्रैफिक और जाम ही मिलने लगा है। और इस ट्रैफिक के बीच मिलता है काला धुआं, जो आपका सारा मज़ा किरकिरा कर देता है।
क्वीन ऑफ हिल्स कहलाने वाला दार्जीलिंग हो या सिलिगुड़ी। यहां शिमला, मसूरी, नैनीताल जैसी भीड़ और ट्रैफिक तो नहीं, लेकिन पहाड़ों की चढ़ाई इतनी खड़ी और जटिल है कि आप खुद ड्राइव कर जाने का सोच ही नहीं सकते। ऊपर तक जाने के लिए जीप, टैक्सी या टैम्पो ट्रैवलर प्रमुख साधन हैं। हालांकि सिलिगुड़ी से दार्जीलिंग तक विश्व प्रसिद्ध टॉय ट्रेन भी चलती है, पर वह 63 किलोमीटर की दूरी तय करने में साढ़े सात घंटे लेती है जबकि रोड से आप ढाई से तीन घंटे में पहुंच जाते हैं। वाहनों और टैम्पो ट्रैवलर का काफिला पहाड़ के घुमावदार रास्तों पर जब चलता है, सारी डीज़ल गाडिय़ां पूरे रास्ते में धुआं छोड़ते दिखती हैं। आगे वाली गाडिय़ों का धुआं पीछे आने वालों के फेफड़े खराब करने के लिए काफी होती है। यह सिलसिला चलता रहता है। हरे-भरे पहाड़ों की खूबसूरती को निहारने का सारा मज़ा प्रदूषित हवाओं ने खराब कर दिया है।
भारत में दिल्ली का वायु प्रदूषण थोड़ा कम भले हुआ हो, लेकिन ध्वनि प्रदूषण और बढ़ता दिख रहा है। बाकी शहरों में हवाओं की शुद्धता लगातार घटती जा रही है। हम कल-कारखानों को कोसते थे, अब उनकी जगह गाडिय़ों ने ले ली है। और जब जाम लगता है, तो ध्वनि और वायु प्रदूषण दोनों ही बढ़ते हैं। मझोले शहरों में प्रदूषण तेजी से बढ़ता जा रहा है।
केवल ग्रीन पीस की रिपोर्ट ही नहीं, हमारे यहां स्थापित प्रदूषण नियंत्रण मंडलों की रिपोर्ट भी बढ़ते प्रदूषण की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करा रही है, लेकिन हमारे देश में एक परंपरा सी बन गई है, हम ही क्यों? दूसरा भी सावधानी बरते। दूसरे लोग वाहन कम करें। यही भावना, यही सोच हमें पतन के गर्त की ओर ले जा रही है। कुछ मिलना हो तो हमें मिले, कुछ देना हो तो सामने वाला दे। हम केवल सुविधाएं भोगना जानते हैं, अपनी पीढिय़ों को बेहतर वातावरण, स्वस्थ जलवायु नहीं देना चाहते। मैदानी हिस्सों से लेकर पहाड़ी क्षेत्रों तक में पर्यटन के नाम पर जिस तरह से हम भीड़ बढ़ा रहे हैं, उसके दुष्परिणाम आज से ही भुगतने को मिल रहे हैं। पर हम शायद नहीं सुधरेंगे। तब चेतेंगे, जब पानी सिर से ऊपर निकल जाएगा।
– संजय सक्सेना