संपादकीय….एक देश, एक चुनाव… – Vishleshan
अचानक केंद्र सरकार ने एक देश एक चुनाव को लेकर एक कमेटी का गठन कर दिया और पांच दिन के लिए संसद का विशेष सत्र बुला लिया। यह सब किसी भी अन्य पार्टी से विचार-विमर्श के किया गया। अब इस पर लगातार बहस तेज होती जा रही है। कोई इसके पक्ष में बात कर रहा है तो कोई इसकी जरूरत नहीं बता रहा। विपक्ष की ओर से सत्तापक्ष पर इस मुद्दे के बजाय यह सवाल उठा कर हमला किया जा रहा है कि जब लोकसभा चुनाव सामने हैं, तभी यह मुद्दा क्यों उठाया जा रहा है?
देखा जाए तो सत्ता पक्ष ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में चुनावी खर्च का ही प्रमुख तर्क दिया है। इस चुनावी खर्च में मानव संसाधनों का वह सारा खर्च शामिल है, जो प्रशासनिक तंत्र के जरिए चुनावों में लगाए जाते हैं। एक और तर्क यह है कि आदर्श आचार संहिता लागू होने के कारण विकास कार्य रुक जाते हैं। लेकिन यह अर्धसत्य पर आधारित है। आचार संहिता में सिर्फ नीतिगत फैसले लेने की मनाही है। चालू परियोजनाओं और कल्याण कार्यक्रमों को लेकर कोई बंधन नहीं है।
चुनाव खर्च और प्रशासनिक तंत्र के इस्तेमाल का सवाल उठाते समय राजनेता शायद ये भूल जाते हैं कि बेहताशा खर्च के लिए चुनाव का बार-बार होना होना उतना जिम्मेदार नहीं है, जितना राजनीति का लगातार भ्रष्ट और हिंसक होते जाना है। चुनाव में अधिक पुलिस बल या बड़े प्रशासनिक तंत्र की जरूरत इसलिए पड़ती है कि राजनीतिक दल सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। राजनीति में अपराधियों और कालाधन रखने वालों की हिस्सेदारी बढऩे के कारण चुनावों पर सरकारी खर्च उसी अनुपात में बढ़ा है।
जहां तक गैर-सरकारी खर्च का सवाल है तो वोट के लिए शराब पिलाने, कपड़ा और पैसा बांटने की संस्कृति चुनावी राजनीति का अभिन्न हिस्सा हो चुकी है। इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिलने वाले चंदा इतना अपारदर्शी है कि यह पता ही नहीं चलता, किसका धन कौन सी पार्टी इस्तेमाल कर रही है। इसी संदर्भ के प्रकाश में यदि हम राजनीतिक पार्टियों की चंदा उगाही पर नजर डालें तो बहुत
चुनाव अधिकार निकाय एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स यानि एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 2021-22 में आठ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों द्वारा घोषित कुल संपत्ति 8,829.16 करोड़ रुपये थी, जो 2020-21 के दौरान 7,297.62 करोड़ रुपये थी। चुनाव सुधारों की वकालत करने वाले समूह ने अपनी रिपोर्ट में वित्त वर्ष 2020-21 और 2021-22 के लिए भाजपा, कांग्रेस, राकांपा, बसपा, भाकपा, माकपा, टीएमसी और एनपीईपी द्वारा घोषित संपत्तियों और देनदारियों का विश्लेषण किया है।
एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2021-22 के लिए बीजेपी ने 6,041.64 करोड़ रुपये के साथ सबसे अधिक पूंजी घोषित की. इसके बाद कांग्रेस और माकपा का स्थान रहा जिन्होंने क्रमश: 763.73 करोड़ रुपये और 723.56 करोड़ रुपये की पूंजी की घोषणा की। वित्त वर्ष 2021-22 में, एनपीपी ने 1.82 करोड़ रुपये का कोष घोषित किया, जो सबसे कम है. इसके बाद भाकपा ने अपने खजाने में 15.67 करोड़ रुपये होने की घोषणा की।
वित्त वर्ष 2020-21 में बीजेपी ने 4,990 करोड़ रुपये की संपत्ति घोषित की थी, जो 2021-22 में 21.17 प्रतिशत बढक़र 6,046.81 करोड़ रुपये हो गई. एडीआर के अनुसार, 2020-21 में कांग्रेस की घोषित संपत्ति 691.11 करोड़ रुपये थी, जो 2021-22 में 16.58 प्रतिशत बढक़र 805.68 करोड़ रुपये हो गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि बसपा एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी है, जिसने अपनी वार्षिक घोषित संपत्ति में कमी दिखाई है. वर्ष 2020-21 और 2021-22 के बीच बसपा की कुल संपत्ति 5.74 प्रतिशत घटकर 690.71 करोड़ रुपये हो गई, जो 732.79 करोड़ रुपये थी. एडीआर ने कहा कि तृणमूल कांग्रेस की कुल संपत्ति 2020-21 में 182.001 करोड़ रुपये थी, जो 151.70 प्रतिशत बढक़र 458.10 करोड़ रुपये हो गई। खास बात यह है कि संपत्ति में ये बढ़ोत्तरी कोविड काल के दौरान हुई, जब देश की सामान्य जनता को बहुत ज्यादा आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। केवल कुछ गिनी-चुनी कंपनियों के साथ ही राजनीतिक दलों की सम्पत्ति में ही इस दौरान इजाफा हुआ, यह किस ओर इशारा कर रहा है?
अब फिर से आते हैं एक साथ चुनाव के मुद्दे पर। यहां सबसे बड़ा मसला है पांच साल के लिए प्रतिनिधि चुनने से भारत की संसदीय प्रणाली और इसके संघीय ढांचे को होने वाले नुकसान का। भारत की संविधानसभा ने बहुत चर्चा के बाद राष्ट्रपति प्रणाली को खारिज कर दिया था जिसके तहत पूरे कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति और विधायिका के सदस्यों को चुना जाता है। हम लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर सत्ता में बने रहने की इंदिरा गांधी की कोशिशों को आपातकाल के रूप में देख चुके है। हमें लोकतंत्र के दो बड़े योद्धाओं, डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को याद रखना चाहिए। डॉ. लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंजतार नहीं करतीं और जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि जनप्रतिनिधि के जनता का विश्वास खो देने पर उसे वापस बुलाने का अधिकार हो। वह प्रतिनिधि वापसी का अधिकार संविधान में दर्ज कराना चाहते थे।
सही मायने में लोकतंत्र यही है। और वैसे भी, इस बदलाव के लिए संविधान में कई संशोधन करने पड़ेंगे। इसके लिए संसद के कार्यकाल और उसे भंग करने के प्रावधानों वाली धाराएं 83 तथा 85 और राज्य विधानसभाओं से संबंधित धारा 172 तथा 174 में संशोधन करने होंगे। राज्य विधानसभाओं से संबंधित धाराओं के संशोधन के लिए आधे से अधिक राज्यों की सहमति भी लेनी होगी। इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इन जटिल प्रक्रियाओं के लिए सरकार की तैयारी कितनी है।
प्रश्न यह भी है कि क्या संविधान के मूल ढांचे को बदला जा सकता है? हमारा संघीय ढांचा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है। यह बात और है कि आज हमारे संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की बात भी कही जा रही है। लोकतंत्र की भावना का सम्मान कौन कर रहा है? कैसे इसे हम बनाए रख सकते हैं? शायद इन सवालों का आज कोई औचित्य नहीं रह गया है। जब, संसद का सत्र बुलाने के लिए दूसरे दलों की राय नहीं ली गई, तो बाकी मामलों में क्या होगा, कहा नहीं जा सकता। फिर भी हमारे देश की अधिसंख्य जनता लोकतंत्र के पक्ष में है, यह बात और है कि वो समय पर उठकर जागती नहीं है। पर ये भी ध्यान रहे, सोती तो नहीं रहती।
-संजय सक्सेना