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संपादकीय…. नया भवन, नई शुरुआत

आज से देश की संसद एक नए भवन में पहुंच गई है। पुराने संसद भवन की यादों के साथ नए भवन में नई शुरुआत करने की पहल हो रही है। संसद का विशेष सत्र इस मायने में ऐतिहासिक कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार ने सबसे पहले इसमें महिला आरक्षण विधेयक लाने का फैसला किया और आज पेश भी पर दिया। इसके पास होने पर महिला सांसदों की संख्या 181हो जायेगी। 

 सोमवार को सत्र शुरू होने पर कांग्रेस ने यह मांग उठाई थी कि सरकार इसी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाकर संसद और विधानसभाओं में उनके लिए एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था लागू कराए।

एक दिन पहले हुई सर्वदलीय बैठक में भी यह मुद्दा प्रमुखता से उठा। न सिर्फ कांग्रेस और इंडिया गठबंधन से जुड़े दलों ने बल्कि एनडीए से जुड़ी कुछ पार्टियों ने भी इस मांग पर जोर दिया। मतलब यह कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो यह महत्वपूर्ण विधेयक इस सत्र में आसानी से पारित होकर कानून का रूप ले लेगा। पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस विधेयक के लिए मांग करते रहे हैं। ध्यान रहे, यह बिल पास कराने की पहली कोशिश 1996 में हुई थी। हालांकि इन तीन दशकों में न केवल समाज में महिलाओं की स्थिति बदली है, अपितु देश की राजनीति में भी व्यापक बदलाव आया है।

महिला आरक्षण विधेयक जब 1966 में पहली बार पेश किया गया था, उस समय इस विधेयक को जिस तरह का विरोध झेलना पड़ा था, वह अचंभित करने वाला था। सत्तारूढ़ दल और मुख्य विपक्षी दल इसके समर्थन में थे, इस लिहाज से विधेयक पारित होने में कोई बड़ी बाधा नहीं थी। लेकिन जो छोटे दल इसके विरोध में थे, उससे जुड़े सदस्यों ने जबर्दस्त हंगामा किया, यहां तक कि बिल की प्रतियां छीन कर फाड़ दी गईं। उस स्थिति में विधेयक संसद में पेश ही नहीं किया जा सका।

माना जा रहा था कि भले ही प्रमुख दलों के नेतृत्व ने औपचारिक तौर पर विधेयक के पक्ष में स्टैंड लिया था, लेकिन प्राय: सभी दलों के पुरुष सांसद अंदर ही अंदर इसके खिलाफ थे और विरोध कर रहे सांसदों को, परदे के पीछे से, इन सबका समर्थन हासिल था। यही मुख्य कारण रहा कि करीब 27 साल से सभी प्रमुख दलों की सहमति के बावजूद यह विधेयक कानून नहीं बन सका। पिछले करीब तीन दशकों के दौरान समाज में महिलाओं की स्थिति बदली है जीवन के हर क्षेत्र के साथ ही राजनीति में महिलाएं आगे बढ़ी हैं, उन्होंने खुद को सशक्त बनाया है। यहां तक कि चुनाव में भागीदारी के मामले में भी उन्होंने पुरुषों को पीछे छोड़ दिया है। पंचायत चुनावों से लेकर हर चुनाव में महिलाएं बढ़-चढक़र हिस्सा भी ले रही हैं। पंचायतों में तो महिलाओं के लिए आरक्षण अधिकांश राज्यों में कर दिया गया है। विधानसभा और लोकसभा में भी महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है। जाहिर है, राजनीति ज्यादा समय तक इन बदलावों की अनदेखी नहीं कर सकती।

लेकिन यह बात भी ध्यान में रखने वाली है कि महिला सशक्तीकरण का सीधा संबंध विकास की रफ्तार से होता है। और राजनीतिक भागीदारी एवं नीति निर्माण में प्रत्यक्ष भूमिका महिला सशक्तीकरण के सबसे प्रभावी उपाय हैं। ऐसे में इस बिल का करीब तीन दशकों तक लटके रहना न सिर्फ महिला हितों के लिए बल्कि विकास की गति के लिहाज से भी नुकसानदेह रहा। हां, इसमें कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जो ध्यान देने योग्य हैं। एक तो यह, जैसा कि पंचायत और नगरीय निकाय चुनावों में देखा जाता रहा है, महिला आरक्षण के चलते महिलाएं चुनाव जीत जाती हैं, लेकिन उनकी भूमिका केवल बैठकों में हिस्सा लेने या हस्ताक्षर करने तक सिमट जाती है। कई बार तो यह भी देख गया है कि महत्वपूर्ण बैठकों में भी महिला के स्थान पर पति प्रतिनिधि के तौर पर मौजूद रहते हैं। कई स्थानों पर इस पर प्रतिबंध भी लगाया गया है।

यह भी देखा गया है कि जहां किसी बड़े नेता को टिकट कटने की आशंका हो जाती है या आरक्षण हो जाता है तो वह अपनी पत्नी या पुत्री को आगे कर देता है। यानि, विशुद्ध परिवारवाद। यह भी एक तरह से बहुत उचित नहीं माना जा सकता। हां, यदि वह महिला स्वयं नेतृत्व क्षमता रखती है, अपने अधिकार समझती है, तो उसे आगे करना उचित माना जा सकता है। महिला आरक्षण में यह नहीं हो कि नाम महिलाओं का हो और पूरे काम पुरुष करे, सहयोग अलग बात है। और, महिलाओं को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि वह बिना किसी पूर्वाग्रह के काम करें, अपने अधिकारों के साथ ही कर्तव्यों को भी समझें और स्वयं निर्णय लेने की आदत डालें। क्षमता की बात तो शायद अब करना बेमानी है, क्योंकि महिलाओं की क्षमता को आज कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। निजी क्षेत्र के साथ ही सरकारी नौकरियों में, राज्य स्तर से लेकर अखिल भारतीय सेवाओं में महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है और वो आत्मनिर्भर बनी हैं, बन रही हैं। महिला आरक्षण बिल पास होना ही चाहिए और लागू होना चाहिए।

– संजय सक्सेना

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