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पत्रकार समागम…विदाई की बेला में घोषणाओं की बौछार?

-प्रकाश कुमार सक्सेना

पत्रकार संगठनों के मुखिया और बुजुर्ग पत्रकारगण बहुत खुश हैं। मुखियाओं को आचार संहिता लगने के पूर्व के अंतिम माह में कुछ विशेष मिलने की उम्मीद खुश किये है तो बुजुर्गवारों को बीस हजार रुपये प्रतिमाह पेंशन मिलने की घोषणा ने प्रफुल्लित किया है। लेकिन यह सभी बुजुर्गों के लिये नहीं है। जनसम्पर्क विभाग की भेदभावपूर्ण व कुछ अवैध प्रक्रियाओं के शिकार बड़ी संख्या में लोग हैं जो इससे वंचित हैं। और लगभग नब्बे प्रतिशत वो लोग जिन्हें साल में दो बार 15-15 हजार के विज्ञापन वो भी तमाम दस्तावेज लगाने के बाद बमुश्किल मिल पाते हैं, वे मुख्यमंत्री निवास में भोजन ग्रहण कर खुश हैं।

इससे ज्यादा क्या था सिवाय घोषणाओं की बौछार के? जब आचार संहिता लगने में एक माह से भी कम बचा हो तो घोषणाओं में कंजूसी क्यों करते शिवराज? जब देने का वक्त था तब भ्रष्टाचार और अराजकता का गढ़ बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। भ्रष्टाचार को संगठित और सुगठित किया गया। शिवराज सरकार की यह सबसे बड़ी उपलब्धि रही है कि उसने लोकतंत्र व पत्रकारिता को संरक्षण दे सकने वाले इस विभाग को एक बाजारू व्यावसायिक केन्द्र में बदलकर लोकतंत्र और पत्रकारिता का दमन केन्द्र बना दिया। शासन की नीतियों का प्रचार-प्रसार करने वाले कई कलाकारों के पद समाप्त कर नुक्कड़ नाटकों की दुकान जनसम्पर्क विभाग को बना दिया। कई पत्रकार प्रत्यक्ष रूप से व अधिकारियों के संबंधी अप्रत्यक्ष रूप से इस काम में लगकर लाखों बल्कि करोड़ों कमा गये। अब सबसे बड़ा धंधा फिल्मों का है। पत्रकारगण अब इसी विभाग के लिये फिल्में भी बना रहे हैं। कई तो कुछ भी नहीं बना रहे हैं बल्कि उनके कोटे में काम अघोषित रूप से आवंटित कर दिये जाते हैं। ये जिसके लिये कह दें उसके नाम से कार्यादेश निकल जाते हैं। काम और नाम जिनका लगता है उन्हें थोड़ी सी राशि मिलती है और बेचारों को शेष राशि अपने खातों से निकालकर लौटानी पड़ती है। कुछ दिनों पहले अपनी एक पोस्ट में मैंने 20 फिल्मों के काम का जिक्र किया था। उसके बाद 7 अगस्त को कुछ फर्मों के नाम से आदेश जारी होते हैं और उसी दिन किसी फोन के आने पर ये कार्यादेश बिना कोई कारण बताये निरस्त भी होते हैं। शिवराज सरकार ने कानूनी अनिवार्यता के कारण नियम तो बनाये थे लेकिन ये नियम सिर्फ उनके लिये बनाये जिन्हें काम, अधिमान्यता या विज्ञापन नहीं देना होता है। बाकी पालना किसी नियम की नहीं होती।

जो पत्रकार जनसम्पर्क विभाग और उसकी संस्था के साथ धंधा करेंगे तो क्या आप उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे जनता की आवाज बनेंगे? वे लोकतंत्र को बचाने आगे आयेंगे? प्रोफेसर सभरवाल की हत्या हो, एक भांजी का पी.एस.सी. में प्रावीण्यता सूची में स्थान के साथ चयन का मामला हो, व्यापम के घोटाले और हत्याओं के मामले हों या ऐसे ही घोटालों या हादसों का निरन्तर क्रम हो? सारे मामले निरन्तर होते रहे और दबते रहे। क्लीनचिट देने के अघोषित विधान रचे गये। पत्रकारों को नग्नकर पीटा गया हो फिर उनकी तस्वीर वायरल करवाई गई हों। या पत्रकार की किसी कार्यालय में अधिकारियों द्वारा पिटाई की गई हो और उसी पर कई फर्जी एफ.आई.आर. की गई हों? और जनसम्पर्क विभाग में ही एक रिश्तेदार आई.पी.एस. की पद स्थापना की गई हो जो खबरों को एकपक्षीय प्रकाशित करवाने की सामर्थ्य रखता हो? पत्रकार के मुंह पर टी.आई. द्वारा लघुशंका करना और पिटाई करने का मामला हो? और झूठे मुकदमें दर्ज करवाकर पद का दुरुपयोग करते हुये गवाहों को विशेष विज्ञापनों से उपकृत करने के मामले हों? जनसम्पर्क विभाग की भूमिका घोटालों को मैनेज करने और लोकतंत्र को कुचलने से अधिक नहीं रह गई है। और इनसे प्रदेश के पत्रकार “पत्रकार सुरक्षा कानून” बनाने की उम्मीद पाले हुये हैं?

जब कर सकते थे तब कुछ नहीं किया। अब विदाई की संभावना देख घोषणाओं का पिटारा खोलकर आने वाली सरकार पर एक बड़ा आर्थिक बोझ छोड़ने की कूटनीति से अधिक कुछ नहीं है ये। हाँ, अगस्त व सिम्बर माह संघ के अनुषांगिक संगठनों, कुछ संस्थाओं व समर्पित सामाजिक संगठनों को एक से पच्चीस लाख तक के विज्ञापन स्मारिकाओं के नाम से लुटाने का विशेष समय है। इसी के साथ इनके तमाम नेता यहां तक कि विधायक भी इससे लाभान्वित होंगे। यकीन न हो तो इन माह की जानकारी सूचना के अधिकार के द्वारा हासिल करके देख लीजिये। जब इतना लुटेगा तो यहां के अधिकारी, कर्मचारी और उनके बीबी-बच्चे क्या मूक दर्शक बनकर बैठे रहेंगे? बड़े घोटालों को दबाने के लिये अधिकारियों और कर्मचारियों को भी भ्रष्टाचार की छूट देना पड़ती है। और इस संगठित भ्रष्टाचार को संरक्षण भी देना पड़ता है। इस गिरोह से बाहर के लोग मुख्यमंत्री निवास में किये भोजन व फोटो सेशन से अपने आपको सौभाग्यशाली समझ सकते हैं। इस पर कोई रोक नहीं है।

और अन्त में एक बात…

कोरोनाकाल में जनसंपर्क व उसकी संस्था के लिये सबसे अधिक फिल्म निर्माण करने वाले एक पत्रकार ने भी एक राष्ट्रीय स्तर के वेब पोर्टल पर भाजपा सरकार की स्थिति को बहुत कमजोर बताया है।

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