Editorial
क्या शिक्षा माफिया सरकार पर इतना हावी है!

मध्यप्रदेश के व्यापमं घोटाला को भले ही भुला दिया गया हो, लेकिन अब लगातार जिस तरह से परीक्षाओं के पर्चे लीक होने और परीक्षाओं में घोटालों के मामले सामने आ रहे हैं, उनसे यह साफ हो गया है कि अधिकांश परीक्षाएं साफ सुथरी नहीं हैं। हम सभी का शायद यह व्यक्तिगत अनुभव भी है कि हमारी योग्यता के आधार पर हमें सफलता कभी नहीं मिली। परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो इंटरव्यू में बेहतर परफार्मेंस के बावजूद बाहर कर दिया गया। कुछ तो गड़बड़ है, जो शुरू से ही हो रहा है। यह बात और है कि पहले प्रतिशत कम हुआ करता होगा, अब प्रतिशत बढ़ गया।
सही बात तो यही लगती है कि हर दूसरी नहीं तो तीसरी परीक्षा में गड़बड़ी होगी। तभी तो जो बच्चे कभी पढ़ते-लिखते नहीं देखे गए, वो ऐसी परीक्षाओं में पास हुए, जिनके सारे तो क्या, एक-दो सवालों के जवाब भी वो नहीं दे सकते। खैर, फिलहाल तो जो मामले सार्वजनिक हो गए हैं। उन पर बात करते हैं। यह भी कड़वा सच है कि सरकारी तंत्र और कोचिंग अथवा शिक्षा माफिया की मिलीभगत के बिना किसी परीक्षा के पर्चे लीक होना आसान नहीं। शिक्षा क्षेत्र में कई कोचिंग संस्थानों की मौजूदगी और उनमें श्रेष्ठ बनने या बने रहने की आपसी होड़ किस हद तक जा सकती है या जाएगी, इसकी कल्पना करना भी समंदर का थाह लेने की तरह है।
राजनीतिक या प्रशासनिक व्यक्तियों से जुड़े या उनके संरक्षण में पल रहे शिक्षा या कोचिंग संस्थान दरअसल, एक तरह की नोट छापने की मशीन बन चुके हैं। मेडिकल और आईआईटी में एडमिशन के नाम पर पेरेंट्स लाखों रुपए खर्च करने को तैयार रहते हैं। कोई अपनी जीवन भर की जमा पूंजी लगाकर, तो कोई अपनी जमीन- जायदाद को कौड़ी के मोल स्वाहा कर देता है, ताकि उनका बच्चा कुछ बन जाए।
एक सच यह भी है कि भारतीय अभिभावकों की एक अलग तरह की भावुक कहानी होती है। किन्हीं परिस्थितियों की वजह से या हमारे हालात के कारण जो हम खुद अपने जीवन में नहीं कर पाए, वह सब अपने बच्चों से करवाना चाहते हैं या उन्हें वह सब करते हुए देखना चाहते हैं। यही सबसे बड़ी ऐसी भावुकता है जिसके लिए हम सब वह सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं, जिससे हमारे बच्चों की राह किसी न किसी तरह आसान बन सके। और इसी का फ़ायदा उठाते हैं बडे- बड़े शिक्षण संस्थान और उनसे किसी न किसी रूप में जुड़े हुए या संबद्ध कोचिंग संस्थान।
माता- पिता की भावनात्मक भूख को मिटाने या उनकी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के पीछे जी भरकर पैसे लूटे जाते हैं और हमें लगता है कि हम यह सब बच्चों के लिए कर रहे हैं। इसमें हम उन संस्थानों के एक तरह से गुलाम हो जाते हैं। यही कारण है कि इन शिक्षण और कोचिंग संस्थानों की सरकारी तंत्र की मिलीभगत से नई कहानी गढ़ी जाती है। अगर यह सब नहीं हो तो महत्वपूर्ण और अति महत्वपूर्ण परीक्षाओं में लगातार धाँधलियाँ होने का क्या कारण है? मध्यप्रदेश का व्यापमं भी इसका गवाह है, जिसे पूरा खुलने के पहले ही बंद कर दिया गया। वैसे इसमें मंत्री सहित कई हस्तियां जेल भी जा चुकी थीं। मंत्री की तो बलि ही चढ़ गई।
ऐसा लगता है कि कोई सरकार इसकी तह में जाना नहीं चाहती कि आखिऱकार इस सब में उसकी अपनी बदनामी भी तो होती है। तमाम सरकारें इस तरह की तमाम धाँधलियों का खंडन करती रहती हैं और बिचौलियों, दलालों को लगातार बचने की गलियाँ मिलती जाती हैं। अभी नेट और नीट वाली परीक्षाओं को ही देख लो, देश के शिक्षा मंत्री कह रहे हैं कि विभाग की कहीं भी मिलीभगत नहीं है। परीक्षा कराने वाली एजेंसी को वे क्लीन चिट देते हैं और एनटीए के महानिदेशक को हटा दिया जाता है।
सही बात तो यह है कि बच्चों के भविष्य की उनके माता- पिता और परिवारों के सिवाय किसी को चिंता नहीं है। न परीक्षा कराने वाली संस्था या एजेंसी को, न किसी प्रशासन को और न ही किसी सरकार को। ऐसे में पूरी जिम्मेदारी हमारी सबकी ही बन जाती है। और यही कारण है कि अब यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षाओं को एकदम उजागर न करें। शिक्षण या कोचिंग संस्थानों के आगे घुटनों के बल न खड़े हों। उनसे ब्लैकमेल न हों। अतिभावुकता ही हमें बर्बाद कर रही है। इसलिए सम्हल कर चलने का समय है।
जहां तक शिक्षा विभाग की बात है तो वहां के अधिकारी कुछ परदे के पीछे वाले सलाहकारों के रोबोट बने हुए हैं। उनके हिसाब से ही विभाग चल रहा है। मंत्रालय को केवल पुराने इतिहास को मिटाने की पड़ी है, बच्चों के भविष्य से उसका कोई वास्ता नहीं। नीट यूजी की परीक्षा कराने वाली संस्था यानी एनटीए की गलती सामने आई है, लेकिन ये ग़लतियाँ मानने की बजाय एनटीए द्वारा कई दिनों तक बहाने बनाए जाते रहे। उस संस्था को दोषी बताकर लाखों बच्चों की मदद करने की बजाय सरकार अड़ी हुई है परीक्षा रद्द करने से बचने पर।
एक बात और से सौ से डेढ़ सौ तक ग्रेस अंक तक देने का भी कोई गणित एनटीए अब तक समझा नहीं सका है। आखिर ग्रेस अंक देने का औचित्य क्या है? और इसके सही पात्र कौन बच्चे हो सकते हैं? कुछ भी सामने नहीं आ रहा है। सरकार भी यह कहानी अब तक सामने नहीं ला पाई है। देखा जाए तो सरकार के लिए तो यह सुनहरा मौक़ा है। लाखों बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए तुरंत आगे आकर दोबारा नीट परीक्षा करानी चाहिए और उसमें गड़बड़ी नहीं हो सके, यह सुनिश्चित भी करना चाहिए। नई केंद्र सरकार को सबसे पहला बड़ा काम बच्चों के भविष्य को संवारने के साथ ही शुरू करना चाहिए।
हालांकि अभी तक तो लग रहा है कि ऐसा नहीं होगा। फिर भी, अगर ऐसा किया जाता है तो सरकार लाखों परिवारों का भला कर पाएगी और निष्पक्ष परीक्षा का मार्ग भी प्रशस्त हो सकेगा। आखिर परीक्षाओं की विश्वसनीयता ही ख़तरे में पड़ी रहेगी तो पास हुए या उसमें सफल हुए बच्चों की क़ाबिलियत पर कोई कैसे भरोसा करेगा? सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप न होता तो शायद सरकार दबाव में भी नहीं आती। अब सरकार को परीक्षा को लेकर तो निर्णय करना ही चाहिए, साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए अपने तंत्र को दुरस्त करना चाहिए।
कहीं तो थोड़ी बहुत ईमानदारी, थोड़ी बहुत समाज के प्रति जिम्मेदारी का भाव दिखे। यदि सब कुछ माफिया के इशारे पर ही चलता रहा, तो सरकार जैसी संस्था पर से पूरी तरह विश्वास उठ जाएगा। विश्वास लगातार कम हो रहा है, इसे बचाकर रखने की जरूरत है। नहीं तो हम जिस युवा शक्ति के दम का दंभ भरते हैं, वह पूरी तरह बर्बाद होने की कगार पर पहुंच जाएगी।
– संजय सक्सेना