संपादकीय....बजट बढ़ा, सुविधाएं फिसड्डी..बेहाल स्वास्थ्य विभाग..
पिछले चार साल में मप्र का कुल हेल्थ बजट में करीब साढ़े चार हजार करोड़ से अधिक की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं में कितनी बढ़ोत्तरी हुई है, यह निजी अस्पतालों में बढ़ती भीड़ बताने के लिए काफी है। कोरोना काल में ही स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा विभाग का सच सामने आ गया था, इसका फायदा उठाते हुए बजट तो बढ़वा लिया, केंद्र सरकार से भी करोड़ों रुपए मिल गए, पर न तो स्वास्थ्य सुविधाओं में खास विस्तार हुआ और न ही चिकित्सकों की कमी पूरी हो सकी।
लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के बजट करीब 12 हजार करोड़ पहुंच गया है और चिकित्सा शिक्षा यानि मेडिकल एजुकेशन का बजट 2 हजार करोड़ से बढक़र 3 हजार करोड़ को पार कर गया है। लेकिन खबरें बताती हैं कि प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 68 प्रतिशत और चिकित्सा अधिकारियों के 38 प्रतिशत पद खाली हैं। प्रदेश में 13 मेडिकल कॉलेज तो खोल दिए गए हैं, लेकिन उनके हालात भी बेहतर नहीं हैं, यहां 2814 शिक्षक यानि फैकल्टी वाले विशेषज्ञ डॉक्टरों की पोस्ट हैं, लेकिन उन पर सिर्फ 1800 डॉक्टर ही पदस्थ हैं।
े विदिशा तो मुख्यमंत्री का ही क्षेत्र माना जाता है। यहां की खबर पर नजर डालते हैं। पता चला तीन साल पहले 550 करोड़ की लागत से मेडिकल कॉलेज और 300 करोड़ की लागत से नया जिला अस्पताल बन गया। नामकरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के नाम पर हो गया। लेकिन इस शानदार चमचमाती बिल्डिंग को देखकर झूठी तसल्ली ही कर सकते हैं क्योंकि यदि गंभीर रूप से बीमारी में यहां पहुंच गए तो अच्छा इलाज मिलने की गारंटी नहीं है। मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पताल दोनों में ही एक भी कार्डियोलॉजिस्ट, न्यूरोलॉजिस्ट समेत एक भी स्पेशलिस्ट यानि विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं हैं। एक्सीडेंट में कोई हैड इंज्युरी का मरीज आ जाए तो उसे भोपाल ही रैफर करना पड़ता है। ऑपरेशन थिएटर तो बना है, लेकिन उसमें ऑपरेशन करने वाला कोई सर्जन नहीं हैं। डीन खुद स्वीकार करते हैं कि बिल्डिंग से कोई अस्पताल सुपर स्पेशिलिटी नहीं बन जाता, विशेषज्ञ डॉक्टरों के अभाव में हर रोज तमाम मरीजों को भोपाल एम्स या हमीदिया के लिए रैफर करना पड़ता है।
ये हाल अकेले विदिशा के नहीं हैं, बल्कि प्रदेश के आधे से अधिक मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पतालों के यही हाल हैं। ऐसा लगता है, जैसे केवल राजनीति के चलते मेडिकल कालेज खुलवा लिए गए, आगे जनता जाने। भोपाल से तीन सौ किलोमीटर दूर तक से मरीज यहीं आते हैं और बैतूल-छिंदवाड़ा वाले इलाकों के मरीज नागपुर पर भरोसा करते हैं। भोपाल में ही एम्स ने ही कवर किया हुआ है, नहीं तो गांधी मेडिकल कालेज वाले हमीदिया के हालात आज भी बहुत सुधरे नहीं हैं। यहां भी तमाम पद खाली हैं। जिला चिकित्सालय के हाल तो और भी खराब हैं। अधिकांश लोग निजी अस्पतालों पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं। यह उनकी मजबूरी है।
यहां तक तो ठीक, तमाम अतिरिक्त बजट और योजनाओं-घोषणाओं के बावजूद प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 43 प्रतिशत है, जो देश में सबसे ज्यादा है। केंद्र सरकार के रूरल हेल्थ स्टेटिक्स रिपोर्ट 2022 के अनुसार मप्र के ग्रामीण इलाकों में उप स्वास्थ्य केंद्रों में 4134, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 4045 और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 245 में डॉक्टरों के पद खाली हैं। यहां स्त्री रोग विशेषज्ञ 332 डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन सिर्फ 39 ही ग्रामीण इलाकों में पदस्थ हैं। पीडियाट्रिक्स की 332 पोस्ट पर सिर्फ 13 ही बाल एवं शिशु रोग पदस्थ हैं।
अब एक नजर स्वास्थ्य विभाग की कार्यप्रणाली पर भी डाल लेते हैं। एक खबर में खुलासा हुआ है कि कोरोना काल में खरीदे गए वेंटिलेटर तीन साल बाद भी धूल खा रहे हैं। और कोरोना फिर से फैल रहा है। सरकार ने 2021 में पीसी सेठी अस्पताल में 27 वेंटिलेटर, ढेर सारे पलंग सहित जीवनरक्षक उपकरण भिजवा दिए थे। आज तक इनमें से किसी भी मशीन का इलाज में प्रयोग नहीं हुआ। एमटीएच अस्पताल में भी 20 से 30 वेंटिलेटर ऐसे हैं, जिनका उपयोग नहीं हो पा रहा है। एक साल का मेंटेनेंस का कॉन्ट्रैक्ट भी अब खत्म हो चुका है। इसके लिए कोई भी बहाना बनाएं, कागजों में तो चल जाता है, लेकिन देखा जाए तो वह बहाना ही रहता है। आखिर, हम चाहते क्या हैं? एक तरफ सरकार कहती है कि स्वास्थ्य हमारी गारंटी है। हम किसी को बिना इलाज के मरने नहीं देंगे। सबको इलाज मुहैया कराना हमारी जिम्मेदारी है। फिर, ये हालात क्यों? बजट की बात है तो और बढ़ाया जा सकता है। फालतू के कार्यक्रमों और समारोहों में सरकार का करोड़ों का बजट खर्च हो जाता है, क्या उसे स्वास्थ्य विभाग की कमी पूरा करने नहीं दे सकते? और भी ऐसे खर्च हैं, जिन्हें बचाकर स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार पर लगा सकते हैं, लेकिन निजी स्वार्थ और राजनीति के चलते कुछ नहीं हो पाता।
- संजय सक्सेना
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