प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पापुआ न्यू गिनी में जिस फोरम फॉर इंडिया-पैसिफिक आइलैंड्स कोऑपरेशन की बैठक में भाग लेने जा रहे हैं, यह बैठक ऐसे समय हो रही है, जब दुनिया की प्रमुख शक्तियां हिंद-प्रशांत क्षेत्र के रणनीतिक समीकरण को नया आकार देने में लगी हैं। इसमें 18 प्रशांत द्वीपीय राष्ट्रों के नेताओं के साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन भी शिरकत करने वाले थे, लेकिन वॉशिंगटन में चल रही डेट सीलिंग वार्ता के कारण बाइडन को अपना दौरा अचानक रद्द करना पड़ा।
चीन और अमेरिका के बीच उभरते भू-राजनीतिक विवादों में प्रशांत द्वीप समूह की केंद्रीय भूमिका पिछले काफी समय से स्पष्ट हुई है। चीन बहुत पहले से इस क्षेत्र के साथ आर्थिक रूप से जुड़ा रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में सुरक्षा केंद्रित रिश्ते बन गए। पिछले साल चीन और सोलोमन द्वीप ने एक समझौता किया, जिसके मुताबिक पेइचिंग इस देश की राष्ट्रीय सुरक्षा क्षमता को बढ़ाने में मदद करेगा। इसके तहत चीन वहां अपने जहाज भेज सकता है, रसद पहुंचा सकता है, यहां तक कि अपने कर्मचारियों और बड़े प्रॉजेक्टों की सुरक्षा के लिए बल का प्रयोग भी कर सकता है।
हालांकि स्थानीय स्तर पर असंतोष कम नहीं है, इसके बावजूद क्षेत्र में चीन का दबदबा लगातार बढ़ता ही रहा है। इसी साल फरवरी में दक्षिण प्रशांत देश मलाइता प्रांत के प्रमुख डेनियल सुइदानी को विधायिका ने पद से हटा दिया। सुइदानी इस देश में चीनी उपस्थिति के घोर विरोधी थे।
चीन ने प्रशांत द्वीप समूह फोरम (पीआईएफ) और चीन-प्रशांत द्वीप राष्ट्र आर्थिक विकास और सहयोग फोरम (ईडीसीएफ) जैसे क्षेत्रीय मंचों का असरदार ढंग से उपयोग भी किया है। पिछले साल चीन के तत्कालीन विदेश मंत्री वांग यी ने दस प्रशांत द्वीप राष्ट्रों के साथ आर्थिक और सुरक्षा समझौता करने की काफी कोशिश की। हालांकि ये प्रयास सफल नहीं हुए, लेकिन इनसे इस क्षेत्र को लेकर चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा जरूर रेखांकित हुई। इसके उलट, अमेरिका का रवैया इस मामले में बड़ा लचर रहा है। उसने कभी इन देशों के साथ अपने संबंधों को प्राथमिकता नहीं दी। नतीजा यह हुआ कि जैसे-जैसे इन इलाकों में चीन की पैठ बढ़ी, अमेरिका का असर कम होता गया। उसकी दिलचस्पी सैन्य मौजूदगी तक सीमित रही, पर उसने इस क्षेत्र की विकास संबंधी जरूरतों पर कभी ध्यान नहीं दिया।
आखिर, चीन की लगातार बढ़ती सक्रियता से आखिर अमेरिका की नींद टूटी है। बाइडन के इंडो-पैसिफिक एक्सपर्ट कर्ट कैंपबेल ने आगाह किया कि प्रशांत क्षेत्र में चीनी सैन्य उपस्थिति से कभी स्थिति बिगड़ सकती है और इसलिए अमेरिका को भी यहां अपनी मौजूदगी बढ़ानी होगी। इसके बाद वाइट हाउस ने क्षेत्र में अमेरिकी राजनयिक उपस्थिति का विस्तार करने के लिए यूएस-पैसिफिक द्वीप रणनीति घोषित की और पिछले सितंबर में पहला यूएस-पैसिफिक आइलैंड कंट्री समिट किया, जिसने इस क्षेत्र को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता दर्शाई।
ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान और ब्रिटेन के साथ मिलकर अमेरिका ने पार्टनर्स इन द ब्लू पैसिफिक इनिशटिव लॉन्च किया जिसका मकसद पैसिफिक आइलैंड देशों को क्षेत्रवाद, संप्रभुता, पारदर्शिता, उत्तरदायित्व के सिद्धांतों के अनुरूप और प्रशांत द्वीप समूह की अगुआई व उनके निर्देशन में समर्थन उपलब्ध कराना है।
इस समूह में एक ऑब्जर्वर के तौर पर भारत भी विकास में अहम भूमिका निभा सकता है।
नई दिल्ली ने मोदी की फिजी यात्रा के दौरान 2014 में 14 प्रशांत द्वीप राष्ट्रों के साथ एफआईपीआईसी लॉन्च किया था। तब से भारत ने नियमित उच्च स्तरीय बातचीत को बहाल रखने की कोशिश की है। भले ही बाइडन की यात्रा रद्द हो गई, लेकिन मोदी के वहां रहते हुए पापुआ न्यू गिनी जाने की उनकी योजना अपने आप में एक स्पष्ट संदेश देती है। यह कि अमेरिका-भारत साझेदारी अब नए क्षेत्रों में नई संभावनाए तलाशने को लेकर किसी तरह की झिझक नहीं रखती और यह भी कि दोनों प्रशांत क्षेत्र में चीन के दबाव का एक प्रभावी विकल्प प्रदान करने को लेकर प्रतिबद्ध हैं। हालांकि, अमेरिका को जरूर अब यह सुनिश्चित करना होगा कि उसकी घरेलू समस्याएं उसे अपने सहयोगियों और साझेदारों को दीर्घकालिक रणनीतिक इरादों के संबंध में आश्वस्त रखने में बाधक न बनें।
भारत को इन देशों में अपनी भागीदारी बढ़ाने में एक यह बात बहुुत सहायक होगी कि कई देशों में भारतीय मूल के लोग केवल नागरिक के तौर पर ही नहीं रहते, वहां के प्रभावशाली लोगों में भी शामिल है। राजनीति और प्रशासन में भी उनकी हिस्सेदारी है। इसलिए यदि चीन के प्रभुत्व को कम करना है, तो एशिया प्रशांत क्षेत्र में भारत को अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी होगी और साथ ही अलग-अलग क्षेत्रों में सहयोग के समझौते भी करने चाहिए।
- संजय सक्सेना
Post a Comment